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________________ ३६ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ समत्व के ज्ञान, अज्ञान है। जिसमें समत्वभाव है वही वस्तुत: यथार्थ ज्ञानी है। समता की उपस्थिति में ही कर्म अकर्म बनता है, जबकि समत्व के अभाव में कर्म का बन्धकत्व यथावत रहता है। समत्व से सम्पन्न साधक ही सच्चा साधक है। समत्व में वह अपूर्व शक्ति है जिसमें अज्ञान ज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है और वह ज्ञान योग के रूप में प्रतिष्ठित होता है। गीताकार की दृष्टि से स्वयं परमात्मा/ब्रह्म सम है।६ तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति सम में अवस्थित रहता है, वह परमात्म भाव में ही अवस्थित है। समत्व को और अधिक स्पष्ट करने हेतु आचार्य शंकर लिखते हैं - समत्व का अर्थ तुल्यता है, आत्मवत् दृष्टि है। जिस प्रकार सुख मुझे प्रिय और द:ख-अप्रिय है वैसे ही विश्व के सभी प्राणियों को सुख प्रिय/अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल/अप्रिय है। इस प्रकार जो विश्वके प्राणियों में अपने ही सदृश सुख और दुःख को अनुकूल और प्रतिकूल रूप में देखता है, वह किसी के भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता। वही समदर्शी है। सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखना समत्व है। इस प्रकार बौद्ध परम्परा अथवा वैदिक परम्परा में जिस रूप में भी सामायिक का निरूपण हुआ है, उसका मूलभाव समभाव है। समत्वयोगी साधक वैचारिक दृष्टि से समदर्शी होता है और भोगासक्ति के प्रति अनाकर्षण का भाव रखता है। उसके आचार निर्मल और विचार उदात्त होते हैं। वह 'जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त में विश्वास करता है। द्वितीय आवश्यक चतुर्विंशतिस्तव है। इसमें साधक सावध योग से निवृत्त होकर अवलम्बन स्वरूप चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करता है। जैन साधना में स्तुति का स्वरूप बहुत कुछ भक्ति मार्ग की जपसाधना या नामस्मरण से मिलता है। इसके माध्यम से साधक अपने अहंकार का नाश और सद्गुणों के प्रति अनुराग की वृद्धि करता है। जैन विचरणानुसार साधना के आदर्श तीर्थंकर या सिद्धपुरुष किसी उपलब्धि की अपेक्षा को पूरा नहीं करते हैं, प्रत्युत वे मात्र साधना के आदर्श या आलोक स्तम्भ हैं, जिसका अनुसरण कर साधक आत्मोत्कर्ष तक पहुँच सकता है। जैन एवं बौद्ध दोनों ही स्वीकार करते हैं - व्यक्ति स्वयं ही प्रयत्नों से आध्यात्मिक उत्थान या पतन कर सकता है। यदि साधक स्वयं पाप से मुक्ति का प्रयास नहीं करता और केवल भगवान् से मुक्ति की प्रार्थना करता है तो जैन विचारणानुसार यह सर्वथा निरर्थक है, क्योंकि इस प्रकार की विवेकशून्य प्रार्थनाएँ मानव को दीन-हीन और परापेक्षी बनाती हैं। जो साधक स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता, उसे केवल तीर्थंकरों की स्तुति मुक्ति प्रदान नहीं कर सकती। व्यक्ति का पुरुषार्थ ही उसे मुक्ति की ओर ले जा सकता है। चूकिं चतुर्विंशतिस्तव करने से दर्शन की विशुद्धि होती है; श्रद्धा परिमार्जित होती है और सम्यक्त्व विशुद्ध होता है। उपसर्ग और परीषहों को सहन करने की शक्ति विकसित होती है एवं तीर्थंकर/ईश्वर बनने की प्रेरणा मन में उत्पन्न होती है। अत: भक्ति का लक्ष्य अपने आप का साक्षात्कार है, अपने में रही शक्ति की अभिव्यक्ति है। साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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