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________________ ३४ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ मूल्यों की प्राप्ति का पारम्परिक हेतु जैनाचार मात्र वैयक्तिक मुक्ति का उपाख्यान नहीं करता, अपितु उसे समष्टिगत कल्याण के रूप में देखता है। उसकी यही दृष्टि मनुष्य में आत्मगौरव, आत्मविश्वास और आत्मशक्ति को उदित करने में सफल रहती है। पनश्च, समस्त प्राणियों की अभिलाषा है - सुख-प्राप्ति। लेकिन इस सुख की प्राप्ति कैसे हो? इसके सम्बन्ध में समस्त प्राणी अनभिज्ञ होते हैं। यह कोई बाह्य वस्तु या फल नहीं जिसको किसी भी समय प्राप्त किया जा सके। सुख-दु:ख तो आत्मा के अन्दर छिपे हुए हैं और उसकी प्राप्ति के लिए कुछ क्रियाओं का सम्पादन अनिवार्य है। जीवित रहने के लिए जिस प्रकार श्वास लेना जरूरी है, ठीक उसी प्रकार अध्यात्मिक क्षेत्र में जीवन की पवित्रता के लिए जो क्रिया या साधना जरूरी है, उसे ही आगम में 'षट्कर्म' के रूप में निरूपित किया गया है। उक्त विशेषताओं से परिपूर्ण अनन्त चतुष्टय सम्पन्न तीर्थंकरों के साक्षात् उपदेश पर आधारित ध्यानमार्गी जैनाचार-मीमांसा का मूलप्राण षडावश्यक जीवन शुद्धि और दोष परिमार्जन के उस जीवन्त स्वरूप को स्वयं में समाविष्ट किये हुए है जिसके परिज्ञान से साधक अपनी आत्मा को निरखता-परखता है साथ ही आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण और आत्मोत्कर्ष का वह श्रेष्ठतम उपाय है जिसकी साधना और आराधना से आत्मा शाश्वत सुख का अनुभव करता है, कर्म मल को नष्टकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् आचरण से आध्यात्मिक आलोक को प्राप्त करता है। जिस प्रकार 'आत्मशोधन' के लिए वैदिक परम्परा में 'सन्ध्या', बौद्ध परम्परा में 'उपासना', पारसियों में 'खोर देह अवेस्ता', यहूदी और ईसाईयों में 'प्रार्थना' तथा इस्लाम धर्म में 'नमाज' प्रतिष्ठित है, उसी प्रकार जैन-साधना पद्धति में 'आध्यात्मिक शुद्धि' अथवा दोषों के निराकरण हेतु एवं गुणों की अभिवृद्धि के लिए षडावश्यक का प्रतिपादन किया गया है, जिसका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है : सामायिक जैनाचार दर्शन में श्रमण के लिए पाँच चारित्रों में प्रथम चारित्र, तो गृहस्थ साधकों के चार शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत-सामायिक नैतिक साधना का अथ और इति दोनों है। सामायिक को धारण किये बिना कोई भी व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। समत्व-साधना में साधक जहाँ बाह्य रूप में सावध (हिंसक) प्रवृत्तियों का त्याग करता है, वहीं आन्तरिक रूप में सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव एवं सुख-दुःख, लाभ-हानि आदि में समभाव रखता है। लेकिन इन दोनों से भी ऊपर वह अपने विशुद्ध रूप में आत्मसाक्षात्कार का प्रयत्न है। 'सम' शब्दका अर्थ है श्रेष्ठ और 'अयन' का अर्थ है आचरण। अर्थात् श्रेष्ठ आचरण का नाम सामायिक है। मन, वचन और काय की दुष्ट वृत्तियों को रोककर अपने निश्चित लक्ष्य की ओर ध्यान को केन्द्रित कर देना सामायिक है। कर्मों के निमित्त से राग-द्वेष के विषम भाव उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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