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________________ १८ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ "बहुरि जे जीव संस्कृतादिक के ज्ञान सहित हैं किन्तु गणिताम्नायादिक के ज्ञान के अभाव ते मूल ग्रंथ या संस्कृत टीका विषै प्रवेश न करहुं तिन भव्य जीवन काजे इन ग्रंथन की रचना करी है।" ___ पं० टोडरमलजी का यह कथन इस बात की पूर्ण रूपेण पुष्टि करता है कि गणित एवं गणितीय प्रक्रियाओं को सम्यक् रूप से समझे बिना मूल ग्रंथों एवं आगमों की विषयवस्तु को ठीक प्रकार से नहीं जाना जा सकता। जैन शास्त्रों में जिन बहत्तर कलाओं का उल्लेख मिलता है उनमें सर्वप्रथम स्थान लेख का एवं दूसरा गणित का है तथापि आगमों में प्राय: इन कलाओं को "लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ" अर्थात लेखादिक किन्तु गणित प्रधान कहा गया है। मात्र इतना ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जैन वाङ्मय के विषयानुसार विभाजन के क्रम में उसे ४ अनुयोगों में निम्न प्रकार विभाजित किया जाता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार . १. प्रथमानुयोग - तीर्थंकरों एवं अन्य महापुरुषों का जीवन चरित्र, पूर्वभवों का विवरण एवं कथा साहित्य। २. करणानुयोग - लोक का स्वरूप, आकार-प्रकार, कर्म सिद्धांत एवं गणितविषयक साहित्या . ३. चरणानुयोग - मुनियों एवं श्रावकों की चर्या तथा आचार विषयक साहित्य। ४. द्रव्यानुयोग - आत्मा एवं परमात्मा विषयक दार्शनिक साहित्य, न्याय एवं अध्यात्म के ग्रंथ। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार .. १. धर्मकथानुयोग - तीर्थंकरों का जीवन, पूर्वभव एवं धार्मिक कथाओं से सम्बद्ध साहित्य। २. चरण-करणानुयोग - आचार एवं गणित विषयक साहित्य। ३. गणितानुयोग - खगोल विषयक साहित्य। ४. द्रव्यानुयोग - न्याय, कर्म एवं दर्शन सम्बन्धी साहित्य। उक्त विभाजन से स्पष्ट है कि जैन धर्म की दोनों परम्पराओं में गणित को अतिविशिष्ट स्थान दिया गया है। दिगम्बर परम्परा में जहाँ करणानुयोग, द्रव्यानुयोग के ग्रंथ गणितज्ञों के लिए रुचिकर हैं। वहीं श्वेताम्बर परम्परा के विभाजन के अन्तर्गत गणितानुयोग तथा चरण-करणानुयोग के अन्तर्गत करणानुयोग के ग्रंथ उपयोगी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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