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________________ जैन दर्शन में निहित वैज्ञानिक तत्व : १९ वे ० जैन मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने अनुयोगवार संकलनकर गणितज्ञों के लिए काम बहुत आसान कर दिया है। मूलतः गणितज्ञ जैनाचार्य श्रीधर (७९९ ई०) ने भी गणित की आवश्यकता एवं उपादेयता पर खुलकर लिखा है। महावीर के अनुसार तो चराचर जगत में जो कुछ भी है वह गणित के बिना नहीं है | 4 गणित के इतिहास के अध्ययन पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट है कि १८वीं शताब्दी के अन्त में इसके इतिहास का लेखन प्रारंभ हो गया था किन्तु जैन धर्म ग्रंथों में निहित गणितीय ज्ञान की ओर किसी गणितज्ञ का ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ था। प्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीधर ( ७५० ई० लगभग) द्वारा प्रणीत त्रिशंतिका (पाटीगणितसार अथवा गणितसार) का प्रकाशन सुधाकर द्विवेदी द्वारा १८९९ में अवश्य किया गया था किन्तु उस समय इसको अजैन कृति के रूप में प्रकाशित किया गया था। २०वीं सदी के प्रारंभ में Madras Oriental Manuscript Library से सम्बद्ध प्रो० एम० रंगाचार्य' को इस भण्डार से प्राप्त आचार्य महावीर द्वारा रचित गणितीय पाण्डुलिपि गणितसारसंग्रह की प्राप्ति से भारतीय गणित का एक स्वर्णिम पृष्ठ अनावृत हुआ । विश्व समुदाय को इस महत्वपूर्ण जैन गणितीय कृति की जानकारी सर्वप्रथम १९०८ में David Eugen Smith के Bibleotheca Mathematica' में प्रकाशित आलेख के माध्यम से हुई तथा १९१२ में मद्रास सरकार द्वारा गणितसारसंग्रह का प्रो० एम० रंगाचार्य द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद एवं प्रस्तावना सहित प्रकाशन किया गया। वस्तुतः इस कृति के प्रकाशन के साथ ही विश्व समुदाय का ध्यान भारतीय गणित की उस परम्परा की ओर आकृष्ट हुआ जिसे सम्प्रति 'जैन गणित' या Jaina School of Mathematics की संज्ञा दी जाती है और इस प्रकार विश्व क्षितिज पर "जैन गणित" की पुनर्स्थापना हुई। जैन गणित की जड़ें बहुत गहरी हैं। पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों-ब्राह्मी एवं सुन्दरी को क्रमशः लिपि एवं अंक विद्या की शिक्षा दी । सुन्दरी को दिया गया ज्ञान अंक लिपि १, २, ३ का ही था । द्वादशांग जिनवाणी के विवेचनों से भी स्पष्ट है कि १९ अंगों तथा १२वें दृष्टिवाद अंग के 'परिकर्म' एवं 'पूर्व' शीर्षक भेदों में विपुल गणितीय ज्ञान निहित था। इस सन्दर्भ में गणितसारसंग्रह का अध्याय प्रथम, शत्रुंजय काव्य, आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण और आचार्य पुष्पदंत कृत अपभ्रंश भाषा का महापुराण दृष्टव्य है।' चतुर्थ अंग भगवती सूत्र के अनुसार संख्यान या अंकों के विज्ञान का ज्ञान जैन साधुओं की एक प्राथमिक आवश्यकता थी । ९ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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