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अर्थ :- दुर्जन संमत न होय तो पण कवि आ काव्य करे छे। एमां शुं अयुक्त छे? घुवडने प्रकाशित न करवा मात्रथी शुं सूर्य उगतो नथी ! हिन्दी अनुवाद :- दुर्जनों के सहमत न होने पर भी कवि यह काव्य प्रारम्भ करता है उसमें क्या अयुक्त है ? उल्लू को प्रकाशित न होने मात्र से क्या सूर्य उदित नहिं होता? (याने सूर्य उदित होता है) गाहा :
सज्जन स्वरूप अपत्थिओवि सुयणो कईण कव्वे गुणे पयासेइ । धवलेइ जयं सयलं सभावओ चेव निसि-नाहो ।।२७।।
छाया:
अपार्थितोऽपि सुजनः कवीनां काव्ये गुणान् प्रकाशयति ।
धवलयति जगत् सकलं स्वभावत एव निशानाथः ॥२७॥ अर्थ :- प्रार्थना वगर पण सज्जन, कविओनां काव्यना गुणोने प्रकाशे छे। जेम स्वभावथी ज चन्द्र आखा जगतने धवलित करे छे। (उज्जवल करे छे) हिन्दी अनुवाद :- प्रार्थना बिना भी सज्जन कविओं के काव्य के गुणों को देखता है, (प्रकाशित करता है) जैसे स्वभाव से ही चन्द्रमा संपूर्ण जगत् को उज्ज्वल करता है। गाहा :
निंदाकारि-जणस्स वि दोस-ग्गाही न सज्जणो कहवि ।
कुणइ सुयंधं वासिं तच्छिज्जंतो वि मलयरूहो ।।२८।। छाया :
निन्दाकारिजनस्यापि दोषग्राही न सज्जनः कथमपि ।
करोति सुगन्धं वासिं तच्छिधमानोऽपि मलयरुहः ॥२८॥ अर्थ :- चंदनना झाडने कापता कुहाडाने पण चंदन तो सुगंधित ज बनावे छे। तेम निंदा करनारा लोकोना पण दोषोने सज्जन ग्रहण करतो नथी। अर्थात् जोतो नथी। हिन्दी अनुवाद :- चन्दन के वृक्ष का छेद करती कुल्हाड़ी को भी चंदन सुगंधित ही करता है। वैसे ही सज्जन पुरुष निंदा करनेवाले लोगों के भी दोष को ग्रहण नहीं करता है या देखता भी नहीं है। गाहा :- अन्नं च
हवइ हु विरूवयंपि हु कव्वं सुयणाण संगमे लढें ।
सिप्पि-पुडम्मि पविटुं जलंपि मुत्ताहलं होइ ।।२९।। छाया :- अन्यच्च
भवति ननु विरूपकमपि तु काव्यं सुजनानां संगमे'मनोतरम्।
शुक्तिपुटे प्रविष्टं जलमपि मुक्ताफलं भवति । अर्थ :- जेम छीपलामा प्रवेश पामेलुं पाणी पण मोती बनी जाय छे। तेम विरूप एवं पण काव्य सज्जनोनां संगमथी श्रेष्ठ बने छ। हिन्दी अनुवाद :- जैसे सीप में रहा पानी भी मोती बन जाता है, वैसे विरूप (असदृश) काव्य भी सज्जनों के संग से श्रेष्ठ बनता है। १. लढें - दे, मनोहरम्
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