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________________ गाहा: दुज्जण-सहाए पडियं निम्मल-कव्वं पि लहइ न पइटुं । जल-बिंदुव्व सुतत्ते आयस-भाणम्मि पक्खित्तो ।।२३।। छाया: दुर्जनसभायां पतितं निर्मलकाव्यमपि लभते न प्रतिष्ठाम् । जलबिन्दुरिव सुतत्ते अयोभाजने प्रक्षिप्तः ॥२३॥ अर्थ :- अत्यंत तपी गयेला लोखंडना भाजनमां नंखायेला पाणीना बिंदुनी जेम दुर्जननी सभामां रहेलु निर्मल काव्य पण प्रतिष्ठाने पामतु नथी। हिन्दी अनुवाद :- अत्यंत गरम किये गये लोहे के बर्तन में डाले हुए पानी के बुन्द की तरह दुर्जन की सभा में रहा हुआ निर्मल काव्य भी प्रतिष्ठा को नहीं पाता। गाहा : आसज्ज दुज्जणं कवि-जणस्स अभत्थणा तओ विहला । न हु सक्कर-रस-सित्तोवि चयइ कडुयत्तणं निंबो ॥२४॥ छाया: आसाघ दुर्जनं कविजनस्याभ्यर्थना ततो विफला । न खलु शर्करारससिक्तोऽपि त्यजति कटुकत्वं निम्बः ॥२४॥ अर्थ :- साकरना रसथी सींचायेलो लींमडो क्यारे पण कडवाशने छोडतो नथी तेम दुर्जनने प्राप्त करीने कविजननी प्रार्थना निष्फल बने छ। हिन्दी अनुवाद :- शक्कर के रस से सिञ्चित नीम कभी भी कटुत्व नहीं छोड़ता है वैसे दुर्जन से कविजन की प्रार्थना निष्फल बनती है। गाहा: अहवा कहा-पबंधो कीरइ किं दुज्जणाण संकाए ? जूया-भएण परिहण-विमोयणं हंदि! न ह जुत्तं ।।२५।। छाया : अथवा कथाप्रबंधः क्रियते किं दुर्जनानां शंकया ? यूकाभयेन 'परिधानविमोचनं हन्त ! न हि युक्तम् ॥२५॥ अर्थ :- अथवा आ कथानो प्रबंध कराय छ। एमां दुर्जनोनी शंका वडे शुं? 'जूं' ना भयथी वस्त्रनो त्याग करवो योग्य नथी। हिन्दी अनुवाद :- तथापि इस कथा का प्रबंध किया जाता है-उसमें दर्जनों की शंका से क्या? "जू" के भय से वस्त्र का त्याग करना ठीक नहीं है। गाहा : दुज्जण-असंमयं पिहु कुणइ कवी कव्वमेत्य किमजुत्तं ? उल्लुयाणमभासंतोवि दिणयरो किं न उग्गमइ? ॥२६॥ छाया: दुर्जनासंमतमपि तु कटोति कविः काव्यमा किमयुक्तम् । उलकानभासयलपि दिनकरः किं नोद्गच्छति ? ॥२६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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