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________________ जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में मृत्यु विचार : १०३ हो या मृत्यु के पश्चात् उसे दूसरा जीवन मिलता हो। इन दोनों बातों में से जो भी हो अच्छी ही है। जब अन्त ही हो गया तो डर किस बात का ? चलो सब आफतों और से सदा के लिए मुक्ति मिली। जीवन का, जिसमें नाना प्रकार के क्लेश सहने पड़ते हैं, झंझट मिटा। ऐसा होने पर अफसोस और डर किस बात का ? यदि मृत्यु से जीवन का अन्त नहीं होता बल्कि एक शरीर को छोड़कर दूसरे में प्रवेश होता है तो फिर खेद और डर किस बात की ? पुराने और रोगी शरीर को छोड़कर नये में प्रवेश करना किसको बुरा लगेगा? यह तो ऐसा ही है जैसा कि फटे-पुराने कपड़ों को फेंककर नये कपड़ों को पहनना अथवा पुराने और टूटे-फूटे मकान को छोड़कर दूसरे नये मकान में प्रवेश करना। ऐसा होने पर तो दुःख की जगह आनन्द मनाना चाहिए। मृत्यु अवश्यंभावी है। इससे बचा नहीं जा सकता है । अतः तप, संयम, समाधि आदि से जीवन को लाभान्वित करना चाहिए। तप, संयम आदि व्रतों का पालन करते हुए शान्तिपूर्वक जो मृत्यु प्राप्त होती है, वह समाधिमरण ही है । १० महर्षि मृगापुत्र ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप आदि शुद्ध भावनाओं द्वारा श्रामण्य धर्म का पालन करते हुए इस अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त किया था । ११ 1 प्रत्येक व्यक्ति जीवनभर नाना प्रकार के कष्टों से अपने शरीर की रक्षा करता है । अनेक प्रकार की प्रताड़नाओं को सहते हुए इसे सुख देने का भरपूर प्रयास करता है। लेकिन एक दिन यह शरीर कृतघ्न की भाँति साथ छोड़ देती है। अज्ञानी व्यक्ति हर समय इस चिन्ता में रहता है कि इससे कैसे बचाया जाए। लेकिन मृत्युरूपी शिकंजा इसे अन्ततोगत्वा कस ही लेता है। अज्ञानी अपनी देहासक्ति के कारण इस विचार से अत्यन्त दुःखी रहता है तथा अज्ञान के बन्धन में पड़ा रहता है। लेकिन जो व्यक्ति ज्ञानसहित देह पर से अपने ममत्व का त्याग करता है तथा धर्मध्यानसहित वीतरागतापूर्वक अपना देह त्याग करता है, उसका यह देह त्याग समाधिमरण है । १२ समाधिमरण अपनानेवाला (ज्ञानी) व्यक्ति मृत्यु से भयभीत नहीं होता है । जब मृत्यु का समय निकट होता है तो वह प्रसन्नचित्त होकर यह कह उठता है "अहिंसा, सत्य, क्षमा, संतोष की धर्म साधना के मार्ग पर मैं एक साधक के रूप में चला हूँ और मानव जीवन के इस स्वर्णिम अवसर का मैंने पूरा-पूरा लाभ उठाया है। आत्म साधना के नाम पर बहुत कुछ कर लिया है, अब शेष कार्य आगे करूंगा। जीवन का तो हमने पूरा-पूरा लाभ उठाया है, जीवन के अंतिम क्षणों में भी झुकेंगे नहीं । हे मृत्यु ! हम तुम्हें ही झुकाएगें।" वह कह उठता है- "यह देह तो नाशवान है, इसे नष्ट होना ही है। अतः ऐ मृत्यु ! तेरा स्वागत है, तू मेरे नश्वर शरीर को अपने साथ ले जा और मेरी अमर आत्मा को इससे मुक्त कर । १३ यहाँ व्यक्ति का यह मनोभाव उसकी ज्ञान- भावना तथा मृत्यु और जीवन के प्रति तटस्थता के भाव का प्रदर्शन कर रही है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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