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१०४ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ / जनवरी- जून २००४
योगवासिष्ठ के अनुसार व्यक्ति इस जन्ममरण के भंवर में तभी तक फँसा रहता है जब तक कि आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। जब तक अज्ञानी जीव अपने अनिन्दित स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर लेते हैं तब तक वे जल में आवर्तों भाँति संसार में चक्कर काटते रहते हैं। विवेकी पुरुष आत्मसाक्षात्कार के बाद असत् का त्यागकर सत्य ज्ञान को प्राप्त कर कालक्रम से परमपद पा कर पुनः मृत्यु के पश्चात् संसार में पुनर्जन्म नहीं पाता । मृत्यु के द्वारा उसका स्थूल शरीर नष्ट हो जाने पर उसे किसी दूसरे शरीर में जाने की आवश्यकता नहीं रहती । १४
जैन आचार्यों की दृष्टि में मानव शरीर की अपेक्षा धर्म या नैतिक मूल्यों की रक्षा का ज्यादा महत्त्व है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि अगर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाए जिसमें धर्म और शरीर दोनों ही के नष्ट होने की सम्भावना हो अथवा धर्म की रक्षा शरीर त्याग से सम्भव हो तो धर्मरक्षार्थ शरीर का त्याग करना श्रेयस्कर है। लेकिन इस शरीर त्याग में व्यक्ति के मन में मरने या जीने की आकांक्षा नहीं रखनी चाहिए। अगर किसी चीज की आकांक्षा रहे तो मात्र धर्म या नैतिक मूल्यों के रक्षा की।
खाद्य
सामान्य रूप से व्यक्ति धर्म एवं आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा के लिए अपने शरीर का पोषण एवं रक्षण करता है, लेकिन जब उसका शरीर धर्म और आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा करने में समर्थ नहीं होता है और वह बोझ बनने लगता है, तब ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति धर्म एवं आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा के निमित्त देहत्याग करता है । उसका यह देहत्याग आध्यात्मिक दृष्टि से उचित माना जा सकता है। आचार्य देवनन्दी ने इसे बड़े ही अच्छे ढंग से समझाने का प्रयास किया है। उनके अनुसार सोना-चाँदी, पदार्थ तथा अन्य इसी तरह की मूल्यवान और उपयोगी वस्तुओं का व्यापार करने वाले व्यवसायी को उस घर का विनाश कभी भी इष्ट नहीं होता जिसमें उक्त वस्तुएँ रखी हो। यदि किसी कारणवश उसके विनाश का प्रसंग (आग, बाढ़ आदि) उपस्थित हो जाए तो वह उस घर की रक्षा का पूरा उपाय करता है लेकिन जब घर- रक्षा का उपाय सफल होता दिखाई नहीं देता तो घर में रखे हुए बहुमूल्य वस्तुओं को ही बचाने का प्रयास करता है और घर को नष्ट होने देता है। इसी प्रकार व्रत - शीलादि गुणों का अर्जन करने वाला व्यक्ति इन व्रतादि गुणों के आधारभूत शरीर का पोषण एवं रक्षण आहार द्वारा करता है। दुर्भाग्यवश यदि शरीर के विनाश का कारण उपस्थित हो जाता है तो वह उसे दूर करने का यथासंभव प्रयत्न करता है । लेकिन जब उसको दूर करने में सफल नहीं होता है तो वह बहुमूल्य शीलादि व्रत गुणों की रक्षा करते हुए समाधिपूर्वक शरीर त्याग करता है। तात्पर्य यह है कि धर्म एवं आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा के लिए ही समाधिमरण ग्रहण किया जाता है । १५
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