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________________ १०२ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ योगवासिष्ठ के अनुसार, अंतिम दो अर्थात् धारणा का अभ्यास करने वाला एवं युक्तियुक्त पुरुष शरीर को सुखपूर्वक त्याग देता है। किन्तु प्रथम जो अज्ञानी पुरुष है उसे मृत्यु के समय बहुत कष्ट होता है।" योगवासिष्ठ का स्पष्ट मत है कि जो व्यक्ति शास्त्रों के अनुसार अपनी बुद्धि को शुद्ध नहीं किया है या अच्छों की संगति न करके बुरे लोगों के संगति में रहता है तो ऐसे व्यक्ति को मृत्यु के समय ऐसी आन्तरिक वेदना होती है जैसे कि वह अग्निकुण्ड में गिर पड़ा हो। __आगे योगवासिष्ठकार ने विवेकहीन पुरुष के मृत्यु के निकट होने पर जो अवस्था होती है, उसका उल्लेख किया है। जो इस प्रकार है - मृत्यु के समय उसके आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है, उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता है, उसे दिन में ही तारे दिखाई देने लगते हैं। उसको आकाश में चारों ओर काले बादल छाए हुए नजर आते हैं। उसका हृदय दर्द से फटने लगता है। उसे ऐसा लगता है जैसे कि सारे पदार्थ गतिशील हों, पृथ्वी आकाश के स्थान पर और आकाश पृथ्वी के स्थान पर है। उसे ऐसा लगता है जैसे उसे अँधेरे कुंए में डाल दिया गया हो या पत्थर के अन्दर दबा दिया गया हो। वह अपने को चारों ओर से गिरता, पड़ता हुआ चिल्लाने की आवाज सुनता हुआ पागल सा होकर अपनी सब इन्द्रियों में चोट लगी हुई सा अनुभव करता है। उसके सब इन्द्रियों का ज्ञान धीरे-धीरे मन्द पड़कर चारों ओर अन्धेरा छा जाता है उसकी स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है। मोह के कारण उसकी कल्पना शक्ति भी नष्ट हो जाती है। इस प्रकार से वह अपने विवेक को खोकर महा अंधकार में पड़ा रहता है। ___सामान्यजन संसार और विषय-कषाय के पोषक जड़ और चेतन पदार्थों को आत्मीय समझते हैं। आत्मीयता के कारण उन्हें छोड़ने में कष्ट होता है। लेकिन जो ज्ञानी पुरुष हैं जिनको शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान है वे विषय और कषाय की पोषक बाह्य वस्तुओं को तथा अपने शरीर को भी आत्मीय नहीं मानते हैं। . अत: उनको छोड़ने में दुःख नहीं होता है। वे इस संसार को अपना वास्तविक निवास स्थान नहीं समझते हैं। वे इससे मुक्त होना चाहते हैं। अत: ज्ञानी व्यक्ति अपने पौदगलिक शरीर के त्याग का अवसर उपस्थित होने पर आनेवाली मृत्यु का महोत्सव मनाते हैं। वे अपने रुग्ण, असक्त, क्षणभंगुर, जीर्ण-शीर्ण शरीर को उसी प्रकार प्रसन्नतापूर्वक छोड़ते हैं जिस प्रकार नया वस्त्र ग्रहण करने के लिए पुराने वस्त्रों का त्याग किया जाता है। वसिष्ठजी का भी कहना है कि मृत्यु का भय मूर्खता है क्योंकि मृत्यु का दो में से एक ही अर्थ हो सकता है : या तो मरने पर मनुष्य का सर्वथा अन्त हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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