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________________ जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में मृत्यु विचार : १०१ आचारांग, समवायांग, स्थानांग, पंचाशकादि प्राचीन जैन ग्रन्थों में समाधिमरण अथवा सल्लेखना के स्वरूप पर विचार-विमर्श हुआ है, लेकिन रत्नकरंडक श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने समाधिमरण के स्वरूप का स्पष्ट शब्दों में जो विवेचन किया है वह अन्यत्र अनुपलब्ध है। इनके अनुसार - उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा, असाध्य रोग अथवा इसी तरह की कोई प्राणघातक अनिवार्य परिस्थिति उपस्थित हो जाने पर धर्म की रक्षा अथवा समभाव की साधना के लिए जो देहत्याग किया जाता है, वह समाधिमरण कहलाता है।२ ।। ... जीवन की अंतिम बेला में अथवा किसी आसन्न संकटापन्न अवस्था में इधरउधर के विक्षेप, माया-ममता, वैभव-विलास, ललक-लालसा से पृथक होकर अपनी स्वीकृत साधना, आत्म-मन्थन के प्रति एक रूप होकर तथा सभी पाप, ताप, संताप, समग्र आसक्ति और प्रीति से विमुक्त होकर अनशनपूर्वक देह से ममत्व का त्याग कर देना चाहिए। साधना की इस अतमुखी स्थिति में साधक परिवार, घर, जड़, चेतन आदि सभी पदार्थों से आसक्ति का त्याग करता है। अपनी समस्त शक्ति अर्थात् आत्मा, मन, प्राण आदि को इस समत्व साधना के साथ एकनिष्ठ तथा एकरस कर देता है। साधक को लौकिक और पारलौकिक दोनों संसारों का आकर्षण नहीं रहता है। सभी ओर से सिमटकर वह विशुद्ध आत्म-परिणति में विचरण करता है। इस प्रकार समाधिमरण विशुद्ध चारित्र से युक्त आत्मभाव में आत्मा के रमण करने का नाम है।' __उपासकाध्ययन का स्पष्ट मत है कि जब व्यक्ति को यह विदित हो जाए कि उसका शरीर नष्ट होने वाला है तो उसे समभावपूर्वक शरीर का त्याग करना चाहिए और यदि देह ठहरने योग्य हो तो उसे नष्ट नहीं करना चाहिए और यदि वह नष्ट हो रहा हो तो किसी तरह का प्रमाद भी नहीं करना चाहिए। प्राणि के दुःखों का मूल कारण देह के प्रति मोह भाव ही है क्योंकि देह के प्रति रागभाव और देह के विनाश के कारणों के प्रति द्वेष-भाव होने से वह समभाव को प्राप्त नहीं कर पाता है। वह अपने प्रियजनों की मृत्यु अथवा स्वयं की मृत्यु की सम्भावना से सदैव भयभीत रहता है। लेकिन जो ज्ञानी हैं, वे ऐसा नहीं समझते हैं। वे अपनी मृत्यु से नहीं डरते उनके अनुसार तो मृत्यु जीर्ण-शरीररूपी-पिंजरे से आत्मा का छुटकारा दिलाती है अत: यह तो कल्याणकारी मित्र है। ऐसी निराकांक्ष समभाव मृत्यु को मृत्यु महोत्सव कहा गया है। योगवासिष्ठ का भी स्पष्ट मत है कि मृत्यु के समय अज्ञानी को ही क्लेश होता है। इसके उपाख्यानों में लीला का उपाख्यान सर्वश्रेष्ठ और सबसे लम्बा है। इसमें मृत्यु आदि अनेक रहस्यों का वर्णन है। व्यक्ति तीन प्रकार होते हैं। प्रथम अज्ञानी पुरुष, द्वितीय धारणा का अभ्यास करने वाला पुरुष और तृतीय युक्ति युक्त पुरुष। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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