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त्रस
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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ जनवरी - जून २००४
स्थावर का विभाग
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आचारांग में अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, संमूर्च्छिम, उद्भिद् और औपपातिक इन आठ प्रकार के त्रस जीवों का उल्लेख हुआ है। त्रस जीवों के प्रस्तुत भेदों से वे तीन प्रकार के हैं - १. संमूर्च्छनज, २. गर्भज, ३. औपपातिक । त्रस जीव के ये भेद उनके जन्म की अपेक्षा से हैं। अर्थात् किस रूप से वे जन्म लेते हैं। स्थावरकाय के जीव सम्मूर्च्छन के साथ गर्भज एवं औपपातिक भी होते हैं। सम्मूर्च्छन का अर्थ है - गर्भाधान के बिना ही यत्र-तत्र आहार ग्रहण कर शरीर का निर्माण करना। इस विधि से उत्पन्न होने वाले प्राणी सम्मूर्च्छनज कहलाते हैं। रसज, संस्वेदज और उद्भिद - ये तीन सम्मूर्च्छनज हैं। अण्डज, पोतज और जरायुज- ये गर्भज हैं। उपपात से जन्म लेने वाले देव और नारक औपपातिक कहलाते हैं।
त्रस की परिभाषा
आचारांग में त्रस प्राणियों का उल्लेख है किंतु वहां त्रस की परिभाषा उपलब्ध है
समणी मंगल प्रज्ञा*
.. जेसिं केसिंचि पाणाणं अभिक्कंतं पडिक्कंतं, संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइगइ विन्नाया।
जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भयभीत होना, दौड़ना - ये क्रियाएं हैं और जो आगति एवं गति के विज्ञाता हैं, वे त्रस हैं। उत्तराध्ययन वृत्ति के अनुसार जो ताप आदि से संतप्त होने पर छाया आदि की ओर गतिशील होते हैं, वे त्रस (द्वीन्द्रिय आदि जीव) हैं । ४ त्रस और स्थावर
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आचारांग के प्रथम शस्त्र परिज्ञा अध्ययन में ही पृथ्वीकाय आदि छहों कायों का वर्णन है। वहां इनका क्रम प्रचलित क्रम से थोड़ा भिन्न है। पृथ्वी, अप्, तेज, वनस्पति,
स एवं वायु इस प्रकार का क्रम वहां उपलब्ध है जबकि इसी सूत्र के नवें अध्ययन में पृथ्वी आदि का प्रचलित क्रम से ही उल्लेख है ।" इस षड्जीवनिकाय को आचारांग
* गौतम ज्ञानशाला, जैन विश्वभारती, लाडनूं, ३४१३०६, जिला - नागौर (राज०)
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