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________________ त्रस - स्थावर का विभाग : ५ स्थावर और त्रस इन दो भागों में विभक्त करता है या नहीं? इसका अवबोध प्रथम अध्ययन से प्राप्त नहीं होता है। वहां त्रस प्राणी यह उल्लेख है किंतु स्थावर शब्द का प्रयोग वहां पर नहीं है। पूरे आचारांग में मात्र एक सूत्र में स्थावर शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है। वहां त्रस और स्थावर दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग है, जिससे ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण जीव-समूह त्रस और स्थावर इन दो विभागों में विभक्त है। आचारांग में यह तथ्य प्रकारान्तर से प्राप्त है कि पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीव हैं, इसके अतिरिक्त द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीव हैं। दशवैकालिक में षड्जीवनिकाय का उल्लेख है। वहां पर भी षड्जीवनिकाय का त्रस एवं स्थावर इन दो भागों में विभाग नहीं किया है किंतु उसी आगम के चतुर्थ अध्ययन में अहिंसा महाव्रत के प्रसंग में त्रस और स्थावर का एक साथ प्रयोग हुआ है। जिससे ज्ञात होता है कि त्रस के अतिरिक्त पृथ्वीकाय आदि स्थावर हैं। वहां भी त्रस-स्थावर का प्रकारान्तर से ही उल्लेख है। 'षड्जीवनिकाय : त्रस एवं स्थावर उत्तराध्ययनसूत्र में षड्जीवनिकाय का विभाग स्थावर एवं त्रस इन दो भागों में हुआ है। वहां पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय इन तीन को स्थावर कहा है। तेजस्काय, वायुकाय एवं उदार त्रस ये त्रसकाय के भेद हैं। स्थानांग में भी त्रस एवं स्थावर का यही वर्णन प्राप्त है। वहां भी तेजस्काय, वायुकाय एवं उदार त्रस जीवों को बस कहा है तथा पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय को स्थावर कहा है।११ जीवाजीवाभिगम में त्रस एवं स्थावर के भेद से दो प्रकार के संसार समापन्नक जीवों का उल्लेख है।१२ इस आगम में भी पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय को स्थावर कहा है१३ तथा तेज, वायु एवं उदार (स्थूल) वस का त्रस रूप में उल्लेख है।१४ त्रस एवं स्थावर का यह विभाग उत्तराध्ययन जैसा ही है। तत्त्वार्थसूत्र में भी त्रस एवं स्थावर के सम्बन्ध में उपर्युक्त विभाग ही प्राप्त है।१५ यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदाय मान्य सूत्रों में भिन्नता है। वहां पृथ्वी आदि पांचों को स्थावर एवं द्वीन्द्रिय आदि को बस कहा है।१६ स्थानांग में दो कायप्रज्ञप्त हैं - बस और स्थावर। वहां पर इन दोनों के दोदो भेद किये हैं - भवसिद्धिक और अभवसिद्धिका पांचवें स्थान में पांच स्थावरकाय एवं उनके पांच अधिपतियों का उल्लेख है। किंतु वे नाम भिन्न प्रकार के हैं।२८ स्थावरकाय के इन्द्र, ब्रह्म आदि नाम उनके अधिपतियों के आधार पर किये गये हैं। स्थानांगटीका में इन्द्र, ब्रह्म, शिल्प, सम्मति एवं प्राजापत्य को क्रमश: पृथ्वी, अप्, तेज, वायु एवं वनस्पति कहा है। टीका में कहा गया है कि जिस प्रकार दिशाओं के अधिपति इन्द्र, अग्नि आदि हैं, नक्षत्रों के अधिपति अश्वि, यम, दहन आदि हैं, शक्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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