SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनों की नास्तिकता धर्मनिरपेक्ष समाज का आदर्श डॉ० काकतकर वासुदेव राव* आम लोगों की धारणा के अनुसार नास्तिक स्वार्थी एवं असामाजिक होते हैं। ईश्वर, पाप, पुण्य, पुनर्जन्म आदि का निराकरण करते हुए वे केवल भौतिक भोगवाद का समर्थन करते हैं। नास्तिकों पर "ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्" जैसे जीवन के 'आदर्शों का आरोप प्रसिद्ध है। सामान्य जनों की ऐसी धारणा के बावजूद भारत में नास्तिक दर्शनों की अविच्छिन्न परंपरा चली आयी है। चार्वाक, बौद्ध और जैन ये तीन भारत के प्रमुख नास्तिक (निरीश्वरवादी) दर्शन हैं। चार्वाक दर्शन पर प्रतिपक्ष के विद्वानों द्वारा लिखित साहित्य उपलब्ध है। इस में निंदात्मक खंडन पर ही बल दिया गया है। चार्वाकों के पक्ष में पर्याप्त साहित्य के अभाव के कारण यहां उस दर्शन का विचार करना अनुचित है। बौद्ध दर्शन पर विपुल साहित्य उपलब्ध है और बौद्ध धर्म भारत के बाहर भी कई देशों में फैल गया है। तथापि खुद भारत में इस धर्म की मान्यता कई सदियों से घटती आयी है। इस वास्तविकता के कई कारण हो सकते हैं। फिर भी यह निर्विवाद है कि भारतीय जनमानस में बौद्ध दर्शन अपना स्थान कायम करने में विफल रहा है। यद्यपि जैन दर्शन का आधार भी निरीश्वरवाद है तथापि उसकी परंपरा निरंतर चली आयी है। जैनेतर चिंतक भी इस दर्शन का आदर करते हैं। अब प्रश्न यह है कि भारत में ही नहीं, पूरे संसार में आस्तिक दर्शनों का समर्थन करने वालों की बहुलता के बाद भी जैन दर्शन का आदर क्यों होता है? उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए आस्तिकता और नास्तिकता में मूलभूत अंतर क्या है यह स्पष्ट करना होगा। आस्तिक दर्शनों में यह गृहीततत्त्व के रूप में माना गया है कि इस विश्व का निर्माण एवं परिपालन करने वाला कोई अलौकिक पुरुष या एक से अधिक देव हैं। मानव के शरीर में एक शाश्वत एवं अभौतिक तत्त्व है जिसे आत्मा कहते हैं। मृत्यु के समय आत्मा शरीर छोड़ कर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। स्वभाव से सभी मानव मोहपाश में बंधे हैं और पापकर्मों में प्रवृत्त होते हैं। पापकर्मियों को ईश्वर दंडित करता है। यदि पापी अपनी गलतियों को पहचान कर भक्तिभाव से ईश्वर की शरण में जाते हैं तो वे पापमुक्त हो कर सुख प्राप्त करते हैं। ईश्वर स्वभावत: दयालु है। फिर भी अपनी अवहेलना करने वालों को वह कठोर दंड देता है। आस्तिक सिद्धांतों की विविधता होते हुए भी सृष्टिकर्ता, अविनय से क्रुद्ध र * ४४ आनंदवन, ए-६ पश्चिम विहार, नयी दिल्ली -११००६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy