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६८ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३
आकार-प्रकार अथवा गुणधर्म की अपेक्षा विचार करके जाति का निर्धारण करना होगा। आज के वैज्ञानिक भी इसी पद्धति से जाति का निर्धारण करते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से एक बात तो स्पष्ट है कि जाति के निर्धारण में गुण, कर्म अथवा आकार-प्रकार आदि ही कारण हैं। परवर्ती काल में जन्म को आधार बनाकर जो जाति-निर्धारण हुआ है वह भी वस्तुतः परम्परा से प्राप्त उन गुणों, कर्मों अथवा आकार-प्रकार को आधार बनाकर ही हुआ है।
प्राचीन परम्परा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में जो मानव-समुदाय का वर्गीकरण हुआ है वह कर्म के आधार पर ही था। अर्थात् जो विद्याओं के अध्ययनअध्यापन में संलग्न थे वे ब्राह्मण; जो देश की आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा में लगे वे क्षत्रिय; जो वस्तुओं के आयात-निर्यात के माध्यम से जनसामान्य के उपयोग में आने वाली आवश्यक वस्तुओं को उपलब्ध कराते हुये देश की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने में लगे वे वैश्य और जो लोक निर्माण के लिये उपयोगी वस्तुओं को तैयार करने में लगे वे शूद्र कहलाये।
वस्तुत: कोई भी कर्म बुरा नहीं है। बुरा है उस कर्म के प्रति की जाने वाली असावधानी। फिर वह असावधानी किसी भी वर्ग अथवा जाति द्वारा क्यों न की गई हो। किसी राज्य या संगठन के लिये ज्ञान सम्पदा, सुरक्षा व्यवस्था आर्थिक सन्तुलन
और उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन - ये चार घटक मूल रूप से अत्यावश्यक हैं। हम चाहें तो इन्हें समाज में स्वाभिमानपूर्वक जीवन के लिये अत्यन्त उपयोगी चार मूल-स्तम्भ भी कह सकते हैं। इन चार स्तम्भों पर ही हमारा समग्र विकास सम्भव है। इनके सन्तुलित रहने पर ही किसी संस्कृति का विकास और तदनन्तर उसकी सुरक्षा की जा सकती है।
उपर्युक्त चार घटकों अथवा स्तम्भों के संवाहक उपर्युक्त चार वर्ग अथवा जातियाँ ही हैं, जिनका उल्लेख हिन्दू धर्म के प्रमुख ग्रन्थ वेद और मनुस्मृति आदि से लेकर जैन और बौद्धधर्म के ग्रन्थों में भी समान रूप से किया गया है।
भगवान् बुद्ध के उपदेशों से साक्षात् सम्बन्ध रखने वाले पालिग्रन्थ धम्मपद में एक 'ब्राह्मण-वग्ग' आया है, जिसमें ४० गाथाओं में ब्राह्मण की परिभाषा अस्ति
और नास्तिमुखेन की गई है तथा बतलाया गया है कि जो पार, अपार और पारापार नहीं है, निर्भय है, अनासक्त है, वह ब्राह्मण है। यहाँ पार, अपार और पारापार - ये तीन पारिभाषिक शब्द आये हैं, जिनका सामान्य अर्थ यह है कि जो पञ्चेन्द्रियों और मन के प्रति प्रमादी नहीं है और उनके विषयों में आसक्त नहीं है तथा जो मैं अर्थात् अहङ्कार से मुक्त है वह वस्तुत: ब्राह्मण है।
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