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________________ जाति व्यवस्था और हमारा दायित्व डॉ. कमलेश कुमार जैन* - किसी समुदाय विशेष को जाति कहते हैं। यह जाति शब्द प्रारम्भ में किसी एक विचारधारा के लोगों के लिये प्रयुक्त हुआ होगा। वामन शिवराम आप्टे ने अपने संस्कृत-हिन्दी कोश में जाति शब्द के अनेक अर्थ किये हैं, जिनमें एक अर्थ यह भी किया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - ये हिन्दुओं की चार जातियाँ हैं। उन्हीं के अनुसार जाति शब्द का एक दूसरा अर्थ है - पशुजाति, पुष्पजाति आदि। जैन दार्शनिकों में आचार्य उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र के 'गतिजाति.....' आदि सूत्र में उल्लिखित जाति शब्द की व्याख्या करते हुये आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि - तासु नरकादिगतिष्वव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतोऽर्थात्या जातिः। तत्रिमित्तं जातिनाम। तत् पञ्चविधम्-एकेन्द्रियजातिनाम द्वीन्द्रियजातिनाम त्रीन्द्रियजातिनाम चतुरिन्द्रिजातिनाम पञ्चेन्द्रियजातिनाम चेति। यदुदयात्मा एकेन्द्रिय इति शब्द्यते तदेकेन्द्रियजातिनाम। एवं शेषेष्वपि योज्यम् (८/११)/ अर्थात् उन नरकादि (आदि पद से यहाँ तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगतियाँ अभीष्ट हैं) गतियों में जिस अव्यभिचारि सादृश्य से एकपने रूप अर्थ की प्राप्ति होती है, वह जाति है और इसका निमित्त जाति नाम कर्म है। वह पाँच प्रकार का है - एकेन्द्रिय जातिनाम कर्म, द्वीन्द्रिय जातिनाम कर्म, त्रीन्द्रिय जातिनामकर्म, चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्म और पञ्चेन्द्रिय जातिनाम कर्म। जिसके उदय से आत्मा एकेन्द्रिय कहा जाता है, वह एकेन्द्रिय जातिनामकर्म है। इसी प्रकार शेष जातियों में भी योजना करनी चाहिये। आवश्यकनियुक्ति की हारिभद्रीयवृत्ति में लिखा है - ‘जाति : मातृसमुत्था' अर्थात् माता के वंश से जाति का प्रादुर्भाव होता है। धवला टीका के अनुसार - 'जातिर्जीवानां सदृशपरिणामः' अर्थात् जीवों के समान परिणामों का नाम जाति है। यहाँ उपर्युक्त तीनों परिभाषाएँ एक ही तथ्य की ओर इङ्गित करती हैं कि - जिस मानव समुदाय के कार्य-कलापों अर्थात् कर्म में एकरूपता हो अथवा जिनके विचारों में परस्पर साम्य हो वह एक जाति है। यह वर्गीकरण मानव मात्र के लिये है, किन्तु जब हम एकेन्द्रिय आदि जीवों की अपेक्षा विचार करते हैं तो हमें वहाँ भी उनके शारीरिक * रीडर, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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