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________________ ३२ 1:3 श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ रचना की जिसमें प्रमाण शास्त्र के अनेक अंगों का सम्यक् विवेचन हुआ है। इस ग्रन्थ के माध्यम से सिद्धसेन ने प्रमाण की परिभाषा देते हुए कहा है कि प्रमाण वह ज्ञान है जो "स्व" और "पर" को बिना किसी बाधा के प्रकाशित करता है। यह प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रकार का होता है। प्रमाण की यह परिभाषा योगाचार बौद्ध दार्शनिकों की प्रमाण की परिभाषा से सर्वथा भिन्न है जो यह मानते हैं कि ज्ञान केवल स्वयं को प्रकाशित करता है। क्योंकि वह यह मानते हैं कि बाह्यार्थ की सत्ता ही नहीं है । सिद्धसेन दिवाकर द्वारा प्रस्तुत प्रमाण की यह परिभाषा नैयायिक तथा मीमांसकों के उस परिभाषा का भी खण्डन करती है जो यह मानते हैं कि ज्ञान केवल बाह्य सत्ता को ही प्रकाशित करता है, वह स्वयं को प्रकाशित नहीं कर सकता। जैन दर्शन यह मानता है कि ज्ञान स्व और पर को एक साथ प्रकाशित करता है। जिस प्रकार एक दीपक अपने प्रकाश के साथ-साथ अन्य बाह्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। सिद्धसेन ने प्रमाण की परिभाषा में जो बाधविवर्जित पद का निवेश किया है वह प्रमाण को मिथ्या ज्ञान से अलग करने के लिए किया। उदाहरणार्थ वह व्यक्ति जिसे नेत्र दोष हो उसे दो चन्द्रमा दिखाई देते हैं। अतः सिद्धसेन ने जो प्रमाण विषयक संशोधन किया है वह अपने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सन्दर्भ : १. सन्मतिप्रकरण, गाथा ३, पृ० २. २. वही, गाथा ४, पृ० ४. ३. वही, गाथा ५, पृ० ४. ४. वही, गाथा ५, पृ० ६. वही. ५. ६. उत्तराध्ययनसूत्र, ६, १, १०. ७. सूत्रकृतांग, २/१/६. ८. उत्तराध्ययन, ६ / ११. ९. अवश्यनिर्युक्ति, ९५/९६. १०. वही, ११५१-५४. ११ . वही, १००. १२ . वही, १०१-१०२ १३. सन्मतिप्रकरण, गाथा २७, पृ० ७४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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