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________________ सिद्धसेन दिवाकर का जैन दर्शन को अवदान : ३१ जोड़ है। ऐसा होने से वह अनेकान्त होने पर भी एकान्त भी है ही। अलबत्ता इसमें इतनी विशेषता है कि यह एकान्त यथार्थता का विरोधी नहीं होना चाहिए। सारांश यह है कि अनेकान्त में सापेक्ष (सम्यक्) एकान्तों को स्थान है ही। जिस प्रकार अनेकान्त दृष्टि एकान्त दृष्टि के आधार पर उपस्थित मन्तव्यों के आधार पर बचने की शिक्षा देती हैं। वैसे ही वह अनेकान्त दृष्टि के नाम से जाने जाने वाले एकान्त आग्रहों से भी बचने की शिक्षा देती है। जैसे प्रवचन एकान्त रूप है ऐसा मानने वाले भी यदि उसमें हुए विचारों को एकान्त रूप से ग्रहण करें तो, वह स्थूल · दृष्टि से अनेकान्त सेवी होने पर भी तात्त्विक दृष्टि से एकान्ती ही बन जाते हैं वे सम्यक् दृष्टि नहीं रहते। जैन दर्शन में संसारी जीव के छ: निकाय बताये गये हैं। जीव की छ: जातियाँ हैं ऐसा एकान्त मानने पर चैतन्य रूप से जीवतत्त्व का एकत्व भुला दिया जाता है और दृष्टि में मात्र भेद ही आता है। अत: पृथ्वीकाय आदि छः विभागों को एकान्त रूप से ग्रहण न करके उनमें चैतन्य के रूप में जीव तत्त्व का एकत्व माना जाय तो वह यथार्थ ही है। इसी तरह आत्मा एक है तथा अनेक है। इस तरह के भिन्न-भिन्न शास्त्रीय वाक्य का समन्वय होता है। इसी प्रकार जीवघात को एकान्त हिंसा रूप समझने में भी यथार्थता का लोप होता है क्योंकि प्रसंग विशेष में जीव का घात हिंसा रूप नहीं भी होता है। कोई अप्रमत्त मुनि सम्पूर्ण रूप से जागृत रहने पर भी, सावधानी रखने पर भी जब जीव को नहीं बचा सकता तब उसके द्वारा हुआ वह जीव घात हिंसा की कोटि में नही आता। तात्पर्यत: कभी-कभी जीवघात अहिंसा की कोटि में भी आता है। अतः जीवघात को एकान्त हिंसा रूप या एकान्त अहिंसा न मानकर योग्य रूप से उसका स्वभाव समझने में ही अनेकान्त दृष्टि है और यही सम्यक् दृष्टि है।१३ (५) जैन दर्शन के प्रमाण शास्त्र को सिद्धसेन का अवदान : न्याय शास्त्र या प्रमाण शास्त्र में दार्शनिकों ने प्रमाण, प्रमाता. प्रमेय और प्रमिति इन चार तत्त्वों के निरूपण को प्राधन्य दिया है। आचार्य सिद्धसेन ही प्रथम दार्शनिक हैं जिन्होंने न्यायावतार जैसी छोटी सी कृति में जैन दर्शन सम्मत् इन चारों तत्त्वों की व्याख्या करने का सफल व्यवस्थित प्रयत्न किया है। उन्होंने प्रमाण और उसके भेद - प्रभेदों का लक्षण बताया है। खास कर अनुमान के विषय में तो उसके हेत्वादि सभी अंग प्रत्यंगों की संक्षेप में मार्मिक चर्चा की है। सिद्धसेन दिवाकर प्रथम जैन तार्किक लेखक हैं। इन्होंने पहली बार तर्क को जैन धर्म की अन्य विधाओं से अलग किया और ३२ श्लोकों में न्यायावतार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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