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________________ १६ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२ / अक्टूबर-दिसम्बर २००३ परवार जाति का उल्लेख पौरट्टान्वय के रूप में मूर्तिलेखों एवं ग्रन्थ एवं पुस्तक प्रशस्तियों में मिलता है। लेकिन इस जाति के उत्पत्तिस्थान के रूप में अभी तक कोई निश्चित ग्राम या नगर का नाम नहीं मिलता है। पट्टावलियों में परवार जाति का उल्लेख विक्रम संवत् २६ से मिलता है और मुनि गुप्तिगुप्त इस जाति में उत्पन्न हुए थे ऐसा भी उल्लेख है। इसके पश्चात सं० ७६५ में होने वाले पट्टाधीश एवं सं० १२५६, १२६४ में होने वाले आचार्य भी परवार जाति में उत्पन्न हुए थे । १० पं० फूलचन्द शास्त्री के मतानुसार परवार जाति को प्राचीन कला में प्राग्वाट नाम अभिहित किया जाता रहा है। लेकिन ब्रहम जिनदास ने “ चौरासी जाति जयमाला " में पोरवाड़ शब्द से परवार जाति का उल्लेख किया है। अपभ्रंश ग्रंथों में परवार को परवाड़ा शब्द से अभिहित किया गया है। महाकवि धनपाल के बाहुबलिचरिउ, रइधू कवि के श्रीपालसिद्धचक्रचरिउ, आचार्य श्रुतकीर्ति के हरिवंशपुराण एवं पं० श्रीधर के सुकुमाचरिउ की ग्रंथ प्रशस्तियों में पुरवाड शब्द का प्रयोग किया गया है। लेकिन श्रावकों की ७२ ज्ञातियों वाली एक पाण्डुलिपि में अष्ठसखा पोरवाड़, दुसरवा पोरवाड़, चोसरवा पोरवाड़, जागड़ा पोरवाड़, पद्यावती पोरवाड़, सोरठिया पोरवाड नामों के साथ परवार नाम को भी गिनाया है। ऐसा लगता है कि परवार जाति भेद एवं अभेदों में इतनी बंट गई थी कि इनमें परस्पर में रोटी एवं बेटी व्यवहार भी बन्द हो गया था। चौसखा समाज वर्तमान में तारणपंथी समाज के नाम से जाना जाता है। कविवर बख्तराम साह ने अपने बुद्धिविलास में परवार जाति के सात खापों का उल्लेख किया है। पौरपट्टअन्वय में जो १२ गोत्र सुप्रसिद्ध हैं उनके नाम निम्न प्रकार हैं - गोइल्ल, वाछल्ल, इयाडिम्म, बाझल्ल, कासिल्ल, कोइल्ल, लोइच्छ, भारिल्ल, माडिल्ल, गोहिल्ल और फागुल्ल। प्रत्येक गोत्र के अन्तर्गत १२ - १२ मूल गिनाए गए हैं जो सम्भवतः ग्रामों के नाम पर बने हुए हैं। देश में परवार जाति मुख्यतः मध्यप्रदेश में मिलती है। जबलपुर, सागर, ललितपुर, कटनी, सिवनी आदि नगरों में ये बड़ी संख्या में मिलते हैं। सारे देश में परवार जाति की संख्या ५-७ लाख से अधिक है। ४. बघेरवाल ११ बघेरवाल जाति राजस्थान की प्रमुख दिगम्बर जैन जाति है। प्रदेश के कोटा, बूंदी एवं टोंक जिले बघेरवाल समाज के प्रमुख केन्द्र हैं | राजस्थान के अतिरिक्त महाराष्ट्र में भी बघेरवाल जाति अच्छी संख्या में निवास करती है। बघेरवाल जाति की उत्पति संवत् १०१ में टोंक जिले के बघेरा गांव से मानी जाती है। कृष्णदत्त ने संवत् १७४६ में रचित अपने बघेरवालरास में उक्त मत की पुष्टि की है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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