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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ८९ प्रदूषण भी एक ज्वलंत समस्या के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। पर्यावरण सम्बन्धी एक संस्था “यूनेप" के एक अध्ययन के अनुसार पृथ्वी की कुल पैदा होने वाली कार्बन डाईआक्साइड के कार्बन चक्र में लाने की क्षमता कम पड़ रही है। कार्बन डाईआक्साइड के बढ़ने का यही क्रम रहा तो पृथ्वी पर इसकी मात्रा दुगुनी हो जाएगी। पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में वनस्पति एवं जंगल वरदान सिद्ध हुए हैं। मनुष्य जीवन वनस्पति पर आधारित है। उससे जीवन की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। वनस्पति एवं वन के विनाश से भारतीय संस्कृति अपंग हो जायेगी। भारतीय संस्कृति तो आरण्यक संस्कृति रही है। आरण्य में रहकर ही ऋषि-महर्षियों ने साधना करके मानव समाज का उत्थान किया है। पृथ्वी पर उपलब्ध वनस्पति के आवरण को आज का मानव नष्ट करता जा रहा है। सन् १९४७ में हिमालय पर्वत के चौंसठ प्रतिशत भाग में वन आच्छादित थे, वे आज सिर्फ तैंतीस प्रतिशत शेष रहे हैं। चाणक्य के समय में अरावली पर्वतमाला में अस्सी प्रतिशत भाग में वन थे, वे आज सिर्फ छ: प्रतिशत शेष बचे हैं। वनों की असीमित कटाई के कारण आज देश में नाम मात्र के वन रहे हैं। जैन आगमों में वनस्पतिकाय-जीवों का एक स्वतंत्र अस्तित्व माना गया है। भगवान् महावीर ने आचारांगसूत्र में मनुष्य और वनस्पति की आपस में जो समानताएँ बताई हैं, वे आज वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा प्रमाणित हो चुकी हैं। उन्होंने कहा - मनुष्य जन्मता है, वनस्पति भी जन्मती है। मनुष्य बढ़ता है, वनस्पति भी बढ़ती है। मनुष्य चैतन्ययुक्त है, वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है। मनुष्य छिन्न होने से क्लान्त होता है, वनस्पति भी छिन्न होने से क्लान्त होती है। मनुष्य अनित्य है, वनस्पति भी अनित्य है। मनुष्य उपचित और अपचित होता है। वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है। मनुष्य विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है, वनस्पति भी विभित्र अवस्थाओं को प्राप्त होती है। भगवान महावीर ने कहा था - देखो, वनस्पति दूसरे जीवों की अपेक्षा तुम्हारे अधिक निकट है। पृथ्वी, अप्, तेजस, वायु आदि के जीवों को समझना कठिन है, किन्तु वनस्पति को समझना आसान है। तुम इसे समझो - इस पर मनन करो। मनन कर अभय-दान दो। आज वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि वनस्पति में क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष आदि के संवेदन होते हैं। सबसे ज्यादा संवेदनशील वनस्पति होती है। हमारे मन में वनस्पति के प्रति प्रेम, सहृदयता के भाव होने चाहिए तभी इसकी सुरक्षा संभव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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