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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ३ "जयं चरे जयं चिट्ठे जयं मासे जयं सये। जयं भूसेज्ज भासेज्ज एव पावं ण वज्झाई।" जैनधर्म से दृष्टि की वस्तुत: जीवन-धर्म है वह जिन्दगी को सही ढंग से जीना सिखाता है, जात-पांत के भेद-भाव से ऊपर उठकर राष्ट्रीयता के परिवेश में आध्यात्म का अवलम्बन कर अपने सहज स्वभाव को पहचानने का मूल-मन्त्र देता है। विश्व की जितनी वस्तुएँ हैं उनके मूल स्वभाव को जान लेना, उन्हें अपनेअपने स्वभाव में रहने देना सबसे बड़ा धर्म है। 'महाभारत' के 'कर्णपर्व' में कहा गया है कि समस्त प्रजा का जिससे संरक्षण हो, वह धर्म है। यह प्रजा पूरे विश्व में व्याप्त है अत: विश्व को जो धारण करता है, उसके अस्तित्व को सुरक्षित करने में सहायक है, वह धर्म है-'धरित विश्वं इति धर्म:। महाभारत की यह उक्ति बड़ी सार्थक है। महर्षि कणाद ने धर्म के विधायक स्वरूप को स्पष्ट करने हुए कहा है कि धर्म उन्नति और उत्कर्ष को प्रदान करने वाला है- यतोऽभ्युदय नि:श्रेयससिद्धिः स धर्म:। उन्नति और उत्कर्ष को मार्ग स्पष्ट करते हुए धर्म के अन्तर्गत श्रद्धा, मैत्री आदि सद्गुणों के विकास को भी सम्मिलित किया गया है। धर्म के दो रूप होते हैं- एक तो वह व्यक्तिगत होता है जो परमात्मा की आराधना कर स्वयं तद्रूप बनाने में गतिशील रहता है और दूसरा सांस्थिक धर्म होता है जो धर्म की भूमिका पर खड़े होकर कर्मकाण्ड और सहकार पर बल देता है। एक आन्तरिक तत्व है और दूसरा बाहय तत्व है। दोनों तत्व एक दूसरे के परिपूरक होते हैं, आन्तरिक अनुभूति को सबल बनाये रखते हैं, बुद्धि-भावना और क्रिया को पवित्रता की ओर ले जाते हैं और मानवोचित गणों का विकास कर सामाजिकता को प्रस्थापित करते हैं। पर्यावरण धर्म की इन दोनों व्याख्याओं से सम्बद्ध है। जैन धर्म अर्हत्धर्म है जहाँ कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करना मुख्य उद्देश्य रहता है। इस दृष्टि से जैनाचार्यों ने धर्म को विविध रूपों से समझाने का प्रयत्न किया है। इसे हम निम्न रूप में विभाजित कर सकते हैं १. धर्म का सामान्य स्वरूप २. धर्म का स्वभावात्मक स्वरूप ३. धर्म का गुणात्मक स्वरूप ४. धर्म का मोक्षमार्गात्मक स्वरूप ५. धर्म का सामाजिक स्वरूप यदि कहा जाय कि धर्म ही पर्यावरण का रक्षक है और नैतिकता उसका द्वारपाल, तो गलत नहीं होगा। तीव्रता से बढ़ती जनसंख्या और उपभोक्ता-वादी संस्कृति के कारण प्रदूषित होते पर्यावरण से न केवल मानव जाति अपितु पृथ्वी पर स्वयं जीवन के अस्तित्व को भी खतरा उत्पन्न हो गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण जीवन के लिए आवश्यक स्त्रोतों का इतनी तीव्रता से इतनी अधिक मात्रा में दोहन हो रहा है कि प्राकृतिक तेल एवं गैस की बात तो दूर रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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