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सृष्टि एवं वातावरण का परस्पर सम्बन्ध ही पर्यावरण हैं, इनके सन्तुलन से ही पर्यावरण शुद्ध रहता है।
पर्यावरण के साथ धर्म को स्थापित करने के लिए धर्म के इस वास्तविक स्वरूप को जानना होगा जो प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी हो । वैदिक युग के साहित्य से ज्ञात होता है कि धर्म का जन्म प्रकृति से ही हुआ है। प्राकृतिक शक्तियों को अपने से श्रेष्ठ मानकर मानव ने उन्हें श्रद्धा, उपहार एवं पूजा देना प्रारम्भ किया। वहीं से वह आत्मशक्ति को पहचानने के प्रयत्न में लगा है। भारतीय परम्परा में धर्म जीवन-यापन की एक प्रणाली है, केवल बौद्धिक विलास नहीं अतः जीवन का धारक होना धर्म की पहली कसौटी है।
धर्म का अनुवाद अंग्रेजी में साधारणत: Religion शब्द से किया जाता है। यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द Relgare से उद्भूत हुआ है, जिसका अर्थ होता है बांधना। धर्म एक ऐसा तत्व है जो आराध्य तथा आराधक, उपास्य तथा उपासक, व्यक्ति तथा समाज को बांधे रहता है।
धर्म के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए जैन आगमों में एक महत्वपूर्ण गाथा कही गयी है
धम्मो च वत्थुसहावो, खामादि भावो य दसविहो धम्मो ।
रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खण धम्मो ||
अर्थात वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस आत्मा के भाव धर्म हैं, रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चरित्र) धर्म है तथा जीवों का रक्षण करना धर्म है। धर्म की यह परिभाषा जीवन के विभिन्न पक्षों को समुन्नत करने वाली है। पर्यावरण की शुद्धता के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार के धर्म की बड़ी सार्थकता है।
धर्म 'धृ' धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है बनाये रखना, धारण करना (धारणात्, धर्ममित्याहु, धर्मे विघृताः प्रजाः )। जैनधर्म अर्हत्धर्म है जहाँ कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करना मुख्य उद्देश्य रहता है।
जैनधर्म कदाचित् प्राचीनतम धर्म है जिसने पर्यावरण को इतनी गहराई से समझा और उसे धर्म और मानवता से जोड़ा। जैनाचार्य पर्यावरण की समस्या से भलीभाँति परिचित थे और प्रदूषण की सम्भावनाएँ उनके सामने थीं। इसलिए सबसे पहली व्यवस्था उन्होंने दी व्यक्ति यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक ठहरे, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोये, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक बोले तो इस प्रकार से संयत जीवन से वह पाप कर्मों में नहीं बंधता ।
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