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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ६९ . १५ कर्मदानों में भगवान् महावीर ने अनेक धंधे-व्यवसाय करने से प्रतिबंधित किया है। इंगालकम्मे - चूना आदि की भट्टी लगाना, वणकम्मे दावग्गदावण्यिा याने जंगल खरीदना, कटवाना, बेचना, जंगल में आग लगाना निषिद्ध है। साड़ीकम्मे, भाड़ीकम्भे भी वनस्पति से संबंधित है। घोड़ागाड़ी बनाने के लिये लकड़ी की जरूरत है। फिर किराये से देने की बात आयेगी। लख्खवणिज्जे - याने लाखका व्यवसायपीपल जाति के वृक्ष का वह निकास है जो अत्यंत सूक्ष्म जंतुओं द्वारा निकलता है। दंतवणिज्जे प्राणी से संबंध रखता है। रसवणिज्जे अपकाय से संबंधित है। यदि स्थूलरूप से देखा जाय तो सभी १५ टर्मदान अहिंसा के दृष्टिकोण से ही कहे गये हैं; जिसमें सामाजिक सुरक्षा की भी दृष्टि है।) आज समाज में जड़वादी विचारधाराएँ अधिक रफ्तार से बढ़ रही हैं। भौतिक सुखों के पीछे मनुष्य दौड़ रहा है। सुख निश्चित रूप से कहाँ है, इसका ज्ञान मानव को नहीं मिला। "तेल्लोक्काडविडहणो कामग्गी विसयरुक्खपज्जलिओ ___ जोवण्णतणिल्लचारी, जं ण डहइ सो हवइ धण्णो।।३६॥"१७ विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोकरूपी अटवी को जला देती है। यौवनरूपी तृण पर संचरण करने में कुशल कामाग्नि जिस महात्मा को नहीं जलाती वह धन्य है। यदि यह ज्ञान मनुष्य में होता तो उसमें ऐशपरस्ती नहीं बढ़ती। यश-कीर्ति के पीछे मानव दौड़ रहा है। इसी प्रकार के भाव लेकर अहंकार का पोषण करता हुआ मनुष्य सप्तकुव्यसनों में जा पड़ता है। "मद्य मास वेश्यागमन परनारी व शिकार जुआ चोरी जो सुख चहै सातो व्यसन निवार"१८ नशीले पदार्थों का सेवन करना उचित नहीं। अपना पेट, पेट है कोई कब्रिस्तान नहीं। अपने जिह्वालालित्य के लिये किसी के प्राण लेना अनुचित है। धर्मग्रंथों में वर्णन है, बहुपत्नीत्व प्रथा का; सुबाहु कुमार, कृष्ण, राजा श्रेणिक इसके प्रमाण हैं। इसलिये “स्वदार संतोष परदार विवर्जन' ऐसा चौथे व्रत का स्वरूप रखा। उसमें भी "इत्तरिय्या से गमन" और "अपरिग्गया से गमन" निषिद्ध है। अनंगक्रीड़ा तथा कामभोग की तीव्र अभिलाषा भी प्रतिबंधित है। मानसिक संतुलन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। असंतुलन का परिणाम ही भोगवाद है। इस की हवस ने ही पर्यावरण को बिगाड़ा है। कषायों से अभिभूत होकर विकथा में बहना प्रमाद है। प्रमाद याने अजागरूकता = मूर्छा। मूर्छा में मनुष्य अपने होश खो देता है और क्रोध-मानादि में उलझ जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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