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थे। सर्वांग दृष्टि से यदि हम सोचें तो जैन धर्म पर्यावरण का संरक्षक ही नहीं, उसकी सुरक्षा का कवच भी है।
आत्मा के स्वभाव को जानने के लिए क्षमा, मृदुता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, तप, त्याग, निस्पृही वृत्ति, ब्रह्मचर्य इन दस प्रकार के आत्मिक गुणों को जानने को धर्म कहा गया है। इन गुणों की साधना से आत्मा और जगत् के वास्तविक स्वभाव के दर्शन हो सकते हैं। इसी स्वभाव रूपी चादर के सम्बन्ध में संत कबीर ने कहा है -
यहि चादर सुर-नर मुनि ओढ़ी
ओढ़ के मैली कीनी चदरिया। दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।।
जब पर्यावरण स्वस्थ होगा तभी प्राणियों का जीवन स्वस्थ होगा। स्वस्थ जीवन ही धर्म-साधना का आधार है। कबीर ने जिसे “जतन' कहा है उसे जैनदर्शन के चिन्तकों ने हजारों वर्ष पूर्व यत्नाचार धर्म के रूप में प्रतिपादित कर दिया था। उनका उद्घोष था कि संसार के चारों ओर इतने प्राणी, जीवन्त प्रकृति भरी हुई है कि मनुष्य, जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय उनके घात-प्रतिघात से बच नहीं सकता। किन्तु वह इतना प्रयत्न (जतन) तो कर ही सकता है कि उसके जीवनयापन के कार्यों में कम से कम प्राणियों का घात हो। मनुष्य की इस अहिंसक भावना से ही करोड़ों प्राणियों को जीवनदान मिल जाता है। जैसा कि कहा है -
जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सये। जयं भुंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई।। दशवैकालिक, ४/३१
पर्यावरण का संरक्षण - पर्यावरण प्रदूषण की समस्या जो निरन्तर सुरसा के मुख की तरह विकराल होती जा रही है, इसके निवारण हेतु हमें जैन आचार संहिता का मूलाधार अहिंसा को अपनाना होगा। जैनों की अहिंसा मनुष्य तक ही सीमित नहीं है अपितु उसका प्रसार सभी चराचर जीवों तक व्याप्त है। वनस्पति में तो विज्ञान जीव मानता ही है, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु भी जीवों की परिधि में आते हैं। इसलिए अकारण किसी भी जीव को नहीं सताया जाय। जीवों की आवश्यक हिंसा उतनी ही की जाए, जितनी जीवनयापन के लिए निहायत जरूरी हो। जैसा कि कहा भी है -
सत्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउँ न मरिज्जिउं। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं।। दशवैकालिक, ६/१०
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