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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ४३ वह अपने स्वार्थ पूर्ति के दलदल में खुद फंसता जा रहा है। भगवान् महावीर ने कहा है कि इच्छाएं आकाश की ही तरह अनन्त हैं जिनमें मानव अपनी स्वार्थ पूर्ति की ऐषणा के चक्रव्यूह में फंस गया है। इस चक्रव्यूह को कौन भेद सकता है। विज्ञान अथवा धर्म? विज्ञान इस क्षेत्र में स्वयं को असहाय महसूस कर रहा है वह तो केवल कारण बता सकता है, निदान नहीं। निदान तो केवल धर्म के पास है तो वह कौन सा धर्म है जो हमें पर्यावरण संरक्षण के उपाय बताता है? वह धर्म है जैन धर्म। तो आइये अवलोकन करें कि जैन धर्म किस प्रकार पर्यावरण संरक्षण हेतु उपयोगी है-: जैन धर्म में श्रमण के पाँच महाव्रत हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। ये ही श्रावक के अणुव्रत कहलाते हैं। जो हमारे जीवन में (Code of conduct) का स्थान रखते हैं। हम देखेंगे कि ये अणुव्रत भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण की शुद्धि में कितने सार्थक हैं। ___अहिंसा जो कि जैन धर्म का पर्याय है, की महिमा का बखान आचारांगसूत्र की इस गाथा में किया गया है-: "अत्थिं सत्थि परेण परं, नत्थि असत्थं परेणपरं"१ अर्थात् शस्त्र तो एक से बढ़कर एक हैं पर अहिंसा से बढ़कर कोई शस्त्र नहीं है। ( जैन धर्म का यह अचूक एवं अमोघ शस्त्र अहिंसा ही पर्यावरण प्रदूषण की समस्याओं से लड़ सकता है। क्योंकि जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसने यह बताया कि सम्पूर्ण सृष्टि सचेतन है तथा यह संसार सूक्ष्म जीवों से भरा है और इसे कष्ट न पहुँचाने का आग्रह किया। इसलिए जैन धर्म में वनों की कदाई का भी निषेध है जो कि पर्यावरण संरक्षण का महत्वपूर्ण भाग है। अहिंसा और सत्य एक दूसरे पर आश्रित हैं। मनुष्य को प्रिय, सत्य एवं हिंसा रहित वचन बोलना चाहिए। मृषावादविरमण व्रत के पाँच अतिचारों में किसी भी प्रकार के असत्य आचरण को दोष बताया गया है। यदि सत्य वचन का पालन किया जाये तो राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में फैले वैमनस्य तथा बढ़ते कुप्रभाव को दूर कर भौतिक पर्यावरण को संरक्षित कर सकते हैं। अचौर्य का अर्थ केवल चोरी न करने से नहीं बल्कि चोर की सहायता करना, राज्य विरुद्ध कार्य करना, लेते-देते तराजू की डंडी चढ़ा देना, रिश्वत लेना, विश्वासघात करना आदि कार्य चोरी के अंतर्गत आते हैं। अचौर्यव्रत के पालन से ही व्यक्ति, समाज तथा देश का आर्थिक पर्यावरण शुद्ध होगा। ‘मच्छा परिग्गहो वत्तो' अर्थात किसी वस्तु पर आसक्ति भाव ही परिग्रह है। परिग्रह का मूल तृष्णा तथा मनुष्य की बढ़ती लोलुपी वृत्ति है। उसी वृत्ति के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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