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वनस्पति के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष अनेक लाभ हैं। सच तो यह है कि पृथ्वी पर जीवन का आधार मात्र वनस्पति ही है।
आदिपुराण में कहा गया है कि वन, संत एवं मुनिराज कल्याणकारक हैं। ये तीनों समस्त कष्ट दूर कर देते हैं। यहाँ तक कि इनकी छायामात्र में बैठने भर से थकान दूर हो जाती है। वनस्पति की विभिन्नता एवं सघनता के फलस्वरूप विशेष पारिस्थितिकी तत्वों का निर्माण होता है। वनस्पति हार्दिक प्रसन्नता का चिन्ह है। इसका प्रसन्नता एवं शान्ति से उतना ही घनिष्ट सम्बन्ध है जितना कि दुल्हा-दुल्हन के बीच पाया जाता है
ये रत्युत्सुकं वीक्ष्य वयस्कान्तं स पुष्पकम् ।
बाणाङ्कितंयदुधानं वधूवरमिव प्रियम।। वन विनाश रोकने के उपाय-: कल्याण एवं सृष्टि के सुसंचालन हेतु वनस्पति का संरक्षण अति आवश्यक है। अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत कर स्वयं जैन शास्त्रों ने इनका संरक्षण आवश्यक बताया है। भगवतीसूत्र में कहा गया है'पुढ़वीकाइया सव्वे समवेदणा समकिरिया' अर्थात् पृथ्वी की भाँति सभी कायों में समान संवेदनशीलता पाई जाती है। अणुसमयं अविरहिए अहारठू समुपज्जई अर्थात् वनस्पति अन्य की भाँति बिना किसी रुकावट के अपना भोजन पाती हैं। ये भाव वनस्पति में जीवन के तथ्य को प्रमाणित करते हैं एवं इसकी रक्षा हेतु अहिंसा के मार्ग की आवश्यकता को प्रतिपादित करते हैं। इसके साथ ही साथ आचारांगसूत्र में मानव एवं अन्य जीवों के सह-अस्तित्व को बनाये रखने हेतु जोर दिया गया है। भविष्यपुराण में वृक्ष को पुत्र से भी अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। पुत्र मृत्यु के समय आपकी सेवा करे या न भी करे, परन्तु वृक्ष आपकी जीवनपर्यन्त सेवा करता है।
वृक्ष से दोहरे लाभ मिलते हैं- एक ओर यह जहरीली गैसों को ग्रहण कर प्रदूषण कम करता है और दूसरी ओर प्राणवायु आक्सीजन देता है। वृक्ष काटनेवाले को हत्यारा मान कर सजा देनी चाहिए। प्रकृति ने अपने अस्तित्व को नियमित करने हेतु स्थायी एवं वैज्ञानिक व्यवस्था कर रखी है। एक पशु ४ से २४ वर्ष तक तथा मानव ४० से ६० वर्ष तक औसत रूप से जीवित रहता है। किन्तु विषहरण हेतु वृक्ष प्राय: ६० से २०० वर्ष या इससे भी अधिक जीवित रहते हैं। वस्तुत: मानव को स्वयं की हत्या से बचने हेत् तरन्त ही वनस्पति संरक्षण प्रारम्भ कर देनी चाहिए और ऐसा करके वह अपने जीवन को सफल बना सकता है। बढ़ते जल, वायु व मिट्टी प्रदूषण, बढ़ते चर्म एवं कैंसर रोग, बढ़ता तापक्रम आदि तो प्रलय की छाया मात्र हैं।
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