SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ३९ मोह है, यह मार है और यही नरक है। इन सभी चेतावनियों के उपरांत भी यदि मानव वनस्पति को नष्ट करता है तो सबसे बड़ा अहित करता है। आगमों में उपयोग की वस्तुओं को २६ प्रकार के समूहों में वर्गीकृत किया गया है। श्रावक के लिए इनका परिमाण बताया गया है। नवम परिमाण फूल के बारे में बताता है-पुप्फविहि परिमाण। सातवां सब्जी से सम्बन्धित है- सागविहि परिमाण। उपयोग की दृष्टि से २४ प्रकार के व्यवसायों का निषेध बताया गया है, उन्हें '१५ कर्मादान' कहते हैं। इनमें से प्रथम, द्वितीय तथा तेरहवां वनस्पति संरक्षण पर जोर देते हैं। इनमें से प्रथम 'इंगालकम्म' है, अर्थात् वनस्पति से कोयला निर्माण का कार्य करना। कोयले के व्यवसाय में असंख्य वृक्ष काटे जा रहे हैं। ऐसा करना उचित नहीं, क्योंकि ये वृक्ष ही वायुमण्डल में विभिन्न स्रोतों से प्रवेश करने वाली जहरीली गैसों का अवशोषण करते हैं और जीव को जीवित रखते हैं। द्वितीय व्यवसाय ‘वणकम्मे' है और तेरहवां दवग्गिदावणियाकम्मो' जो वन व्यवसाय और वन दहन के बारे में बताता है। वस्तुतः इन्हे करना पाप है। आचारांगसूत्र में कहा है कि बुद्धिमान मानव वनस्पति को भी नष्ट नहीं करता हैमेघवी णेण सयं वणस्सइसत्थं समारंभेज्जा, णेव अण्णेहिं वणस्सइसत्थं समारंभावेज्जा, णेव अण्णे वणस्सतिसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा। जस्सेते वणस्सइसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे ति बेमि। हिंसा न करने के ५ नियम हैं। उनका सेवन अतिचार कहलाता है। इनमें से एक अतिचार ‘छविच्छेद' है, जो यह बताता है कि औजार से लकड़ी काटना और छिद्र करना भी पाप है। पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने 'जैन धर्म' नामक पुस्तक में कतिपय वृक्षों के उपयोग का निषेध किया है। उनमें ऊमर, बड़, पीपल और गूलर का उपयोग वर्जित बताया गया है। मानव समाज लकड़ी का उपयोग तो अधिकाधिक करता है, पर मानवकल्याण की इन धार्मिक एवं सांस्कृतिक चेतावनियों के बारे में या तो अनभिज्ञ है या लापरवाह। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त यहाँ तक कहते हैं कि मानव सभी जीव खाने लगा है। अब तो निर्जीव वस्तुएं खाना ही शेष रह गया है। _ विहंगमो केवल पतंग जलचरो नाव ही, चौपायों में भोजनार्थ, केवल चारपाई बच रही। सभी सजीव वस्तुओं को खाने के बाद उड़ने वाले में पतंग, जलजीवों में नाव व चौपाये जानवरों में केवल चारपाई, यानी खाट ही खाना शेष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy