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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : २३ उत्पन्न संपन्नता का भोग कौन और कैसे करेगा? आज विश्व के तथाकथित कर्णधारों को यह चिंता सता रही है कि पृथ्वी का क्या होगा? यदि पृथ्वी न बची तो मनुष्य नहीं बचेगा और मनुष्य नहीं होगा तो संपन्नता अर्थहीन हो जाएगी। मनुष्य ने अपने विकास को लक्ष्य बनाकर प्रकृति का असीम दोहन किया। इसने प्रकृति असंतुलन की स्थिति को जन्म दिया। विकास के विषय में कोई दो मत नहीं है। मतभेद का विषय है सीमा। आदिमकाल से लेकर अब तक विकास का चक्र चलता रहा। उसकी गति बहुत धीमी थी। २०वीं सदी में विकास की रफ्तार तेज हुई। उसका श्रेय विज्ञान को है। सृष्टि संतुलन-इकोलॉजी- की समस्या का श्रेय भी विकास की आँधी को ही है। असंतुलित विकास को एक नदी का प्रवाह मानें तो बाढ़ का खतरा है। मानवीय मूल्य और पर्यावरण-ये दोनों तटबन्ध टूट चुके हैं। अब जलप्रवाह की रोकथाम करना संभव नहीं है। मानवीय मूल्यों और पर्यावरण की सुरक्षा के साथसाथ जो विकास होता है, वह संतुलित होता है। उससे मानवीय अस्तित्व को कोई खतरा पैदा नहीं होता। आर्थिक महात्वाकांक्षा अथवा आर्थिक स्पर्धा ने मानवीय मूल्यों और पर्यावरण दोनों की उपेक्षा की है। फलत: पर्यावरण असंतुलन की समस्या उत्पन्न हुई है। विकास के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है। वह संवेग के अतिरेक से प्रभावित है। अप्रभावित चिन्तन और अप्रभावित बुद्धि का निर्णय सही होता है। संवेग के अतिरेक की दशा में चिंतन और बुद्धि दोनों निष्क्रिय हो जाते हैं। इस निष्क्रियता की भूमिका पर होने वाला विकास मानवीय सभ्यता और संस्कृति के लिए वरदान नहीं अभिशाप होता है। ___ व्यापक दृष्टि से पर्यावरण को भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण के रूप में देखा जा सकता है। जीव को दैहिक संतुष्टि देने वाले तत्व-पृथ्वी, पानी, पवन आदि भौतिक पर्यावरण में समाविष्ट हैं और आत्मिक संतुष्टि आध्यात्मिक पर्यावरण का सुफल है। भारतीय ऋषि अति प्राचीनकाल से ही भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण के प्रति सजग थे। प्राचीन भारतीय साहित्य में पर्यावरण के प्रति उनकी चेतना प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से परिलक्षित होती है। प्राचीन भारतीय संस्कृति दो समानान्तर धाराओं-वैदिक और श्रमण संस्कृति में प्रवाहित हुई। वैदिक संस्कृति का निदर्शन वैदिक वाङ्मय में पंचमहाभूतों की पर्यावरण उपयोगिता से होता है। पौराणिक साहित्य, आयुर्वेद, चरक संहिता, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र तथा स्मृति ग्रंथों में भी पर्यावरण चेतना दृष्टिगत होती है। द्वितीय धारा श्रमण संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण का सूक्ष्म चिंतन है। ___अहिंसा का विज्ञान यही है कि संसार में सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, सब सुख चाहते हैं, कोई दुःख नहीं चाहता। सभी को इस संसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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