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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ९७ कटवाना, जमीन खुदवाना, विषैली वस्तु का व्यापार। इनके त्याग से पर्यावरण के संवर्धन में सहयोग मिलता है। शाकाहार और पर्यावरण संरक्षण __ जैन मनीषियों के अनुसार - जो जीवन तथा अनुशासन में सहायक हो, जो पर्यावरण संवर्धन में सहयोग दे, जो मादकता उत्पन्न न करे, कर्तव्य के प्रति अवहेलना भाव न लाये वही सात्विक भाव है और इसका मूल शाकाहार है। शाकाहार से हम स्वास्थ्य को भी अच्छा रख सकते हैं। "शाकाहारी सदा सुखदायी जीओ और जीने दो भाई" वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह सिद्ध हो चुका है कि मांसाहार प्रकृति के विपरीत आहार है। करुणा ही आत्मा का स्वभाव है। जन-जन में शाकाहार आचरणीय बन कर ही पर्यावरण स्वच्छ रख सकता है। इससे जल संकट की समस्या का समाधान भी सम्भव है। क्योंकि मांस के उत्पादन में अधिक जल व अनाज के उत्पादन में कम जल लगता है। तेजी से बढ़ रहे कत्लखानों ने पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है और इन मूक पशुओं की हाहाकार एवं चीत्कार प्राकृतिक आपदाओं को निमन्त्रण दे रही है। रात्रि भोजन त्याग व पर्यावरण संरक्षण जैन धर्म में रात्रि भोजन का निषेध है, यह महापाप और घोर नर्क का द्वार है। अनेकों अदृश जीव सूर्यास्त बाद ही विचरण करते हैं, अत: रात्रि में भोजन न करके ही हम इन जीवों के प्राण और अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी करते हैं। शास्त्र कहते हैं भोजन तभी करना जब वह पच सके - रात्रि को भोजन करने से अपच होता है जो अन्न को व्याधि में बदल देता है और अजीर्ण से ही जीवन व्यर्थ हो जाता है। सूर्य के प्रकाश में भोजन बनाना व सूर्य के प्रकाश में खाना उसे प्रदूषण से मुक्त और पर्यावरण को भी प्रदूषित होने से बचाना है। जीयो और जीने दो तथा पर्यावरण संरक्षण आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थसूत्र में कहा है कि - परस्परोपग्रहोजीवानाम्अर्थात् एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय सभी जीव एक दूसरे का सहयोग करते हैं। विकास का मार्ग भी हिंसा या विनाश में नहीं अपितु सहकार में सन्निहित है। चींटी से लेकर हाथी, सबको अपना जीवन है प्यारा, जीयो और जीने दो, यही हमारा है नारा। यदि हम किसी को जीवन नहीं दे सकते हैं तो उसका जीवन ले भी नहीं सकते हैं। जैन धर्म का यह सिद्धान्त पर्यावरण के संरक्षण का सर्वोत्कृष्ट उपाय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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