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________________ ९६ अपरिग्रह और पर्यावरण संरक्षण आज के युग में अति लालसा की भूख से ही संग्रहवृत्ति को बल मिल रहा है जिसकी पूर्ति में ही पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है। मनुष्य की बढ़ती इच्छायें और अभिलाषायें ही पर्यावरण को बिगाड़ रही हैं। जैन धर्म का अपरिग्रह सिद्धान्त- अर्थात् किसी भी वस्तु का अधिक संग्रह नहीं । आवश्यकतायें कम और कम से कम। यही जैन धर्म की जीवनशैली है और इसी अपरिग्रह को अपनाकर हम प्रकृति के अतिदोहन पर अंकुश लगा सकते हैं। स्वाद, मनोरंजन, अज्ञानता, लोभ आदि के कारण मानव ने दुर्लभ वन्य जीवों का नाश किया, जीव-जन्तुओं की दुर्लभ प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं। लालची मानव अपनी तिजोरियाँ भरने में लगे हैं, वनों का दोहन कर रहे हैं। अत: जैन धर्म के अपरिग्रह के सिद्धान्त को अपना लिया जावे तो विश्व को पर्यावरण संरक्षण की चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी। सप्त कुव्यसन त्याग और पर्यावरण संरक्षण वही जैनी कहलाता है, जो सप्त कुव्यसन का त्यागी है। जुआ, मांस, मदिरा, चोरी, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन और शिकार ये सात व्यसन अपनाने वाले दुर्गति में जाते हैं और इनका त्याग करने वाला व्यक्ति अपने जीवन का कल्याण करता है। इस प्रकार वह स्वतः ही पर्यावरण के संवर्धन में सहयोग करता है। मांस सेवन के त्याग से जलीय व वन्य जीवों की हिंसा रुकती है। शाकाहार का सेवन ही आहार शुद्धि है और आहार शुद्धि एवं पर्यावरण का जीवन्त संबंध है। साध्वाचार व पर्यावरण संरक्षण हमारी श्रमण संस्कृति शुद्ध पर्यावरण का जीता-जागता स्वरूप है। जैन साधुसाध्वियों की तो पूरी जीवनचर्या ही पर्यावरण संरक्षक होती है। पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति के पालन करने वाले मुनिराज तीन करण व तीन योग से समस्त पापों का त्याग करते हैं, पूरा जीवन यत्नापूर्वक जीवन जीने का संकल्प लेते हैं। उनके जीवन की चर्चा ही समस्त जीवों को अभय दान देने वाली होती है और वे इस प्रकार अपने आचार से पर्यावरण की रक्षा करने का अनमोल संदेश देते हैं। श्रावक जीवन व पर्यावरण संरक्षण जैन श्रावक बारह व्रतों - पांच अणुव्रत व ब्रह्मचर्य का पालन करता है। तीन गुणव्रत अनर्थ दण्ड। जैन धर्म में ऐसे व्यापार को अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह दिशाव्रत, उपभोग- परिभोग वृत्त व त्याज्य माना गया है - जैसे, जंगल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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