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________________ जैन - साहित्य और संस्कृति में वाराणसी मण्डल : के तेइसवें तीर्थङ्कर हैं, की परम्परा में अपने प्रारम्भिक काल में दीक्षित भी हुए थे। आठवीं शती के दिगम्बराचार्य देवसेन के अभिमतानुसार महात्मा बुद्ध प्रारम्भ में जैन थे। जैनाचार्य पिहितास्रव ने सरयू नदी के तट पर अवस्थित पलाश नामक नगर में पार्श्व के संघ में उन्हें दीक्षा दी थी और उनका नाम बुद्धकीर्ति रखा था। दर्शनसार में उन्होंने स्पष्ट लिखा है सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थो । पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो बुढकित्ति मुणी । । १३ ३ इस तथ्य की पुष्टि मज्झिमनिकाय के सीहनादसुत्त में उल्लिखित महात्मा बुद्ध की कठोर तपश्चर्या से भी होती है । बुद्ध स्वयं कहते है कि - " मैं वस्त्ररहित रहा, मैंने आहार अपने हाथों से किया। न लाया हुआ भोजन किया, न अपने उद्देश्य से बना हुआ लिया, न निमन्त्रण से जाकर भोजन किया, न बर्तन से खाया, न थाली में खाया, न घर की ड्योढ़ी में खाया, न खिड़की से लिया, न दो आदमियों को एक साथ खाते हुए स्थान से लिया, न भोग करने वाली से लिया, न मलिन स्थान से लिया, न वहाँ से लिया जहाँ कुत्ता पास खड़ा था, न वहाँ से जहाँ मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। न मछली, न माँस, न मदिरा, न सड़ा मांड खाया, न तुस का मैला पानी पिया । मैंने एक घर से भोजन किया, सो भी एक ग्रास लिया या मैंने दो घर से भोजन लिया सो दो ग्रास लिए। इस तरह मैंने सात घरों से लिया, सो भी सात ग्रास, एक घर से एक ग्रास लिया । मैंने एक दिन में एक बार, कभी दो दिन में एक बार, कभी सात दिन में एक बार भोजन लिया। कभी पन्द्रह दिन भोजन नहीं किया। मैंने मस्तक, दाढ़ी व मूछों के केशलोंच किये। इस केशलोंच की क्रिया को जारी रखा। मैं एक बूंद पानी पर भी दयावान् था। क्षुद्र प्राणी की भी हिंसा मुझसे न हो जावे, ऐसा सावधान था। इस तरह कभी तप्तायमान, कभी शीत को सहता हुआ भयानक वन में नग्न रहता था। मुनि अवस्था में ध्यान में लीन रहता था । " १४ महात्मा बुद्ध की उक्त दुष्करचर्या से उनके प्रारम्भ में जैन मुनि होने की पुष्टि होती है, क्योंकि नग्नत्व, केशलोंच और दिन में एक बार भोजन आदि जैनमुनि के आचार से सम्बन्धित क्रियायें हैं, जो आज भी व्यवहार में देखी जा सकती हैं और जैन-साहित्य में तो इन सबका प्रभूत मात्रा में उल्लेख है ही । Jain Education International तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बद्ध जैन मुनियों का काशी जनपद और उसके आस-पास के क्षेत्रों में निरन्तर विहार होता था, अतः श्रेयांसनाथ की जन्मस्थली सिंहपुर जैनमुनियों से अछूती रही हो, यह सम्भव नहीं है और यही कारण है कि बोधि-प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध सुदूरवर्ती क्षेत्र बोधगया से अपने शिष्यों की खोज में सर्वप्रथम सीधे सारनाथ आये थे, क्योंकि उनके मन में कदाचित् यह आशङ्का रही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525048
Book TitleSramana 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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