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४४ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३ / जनवरी-मार्च २००३
का धारण होना सम्भव नहीं है।
पाश्चात्य चिन्तक जॉन केवर्ड ने प्रतिपादित किया है- “धर्म आत्मा का उस स्थान या क्षेत्र में विकास करता है जहाँ पर आशा निश्चित रूप धारण कर लेती है, संघर्ष विजय - शान्ति प्राप्त कर लेता है, चेष्टाएँ विश्राम पा जाती हैं। इस परिभाषा के अनुसार
" (क) धर्म आत्मा का उत्थान है।
(ख) उस उत्थान में परिवर्तन होते हैं- आशा का निश्चितता में, संघर्ष का विजय में तथा प्रयासों का शान्ति या विश्राम में । २
इस प्रकार धर्म मानव-जीवन को सामञ्जस्यता, शान्ति एवं आनन्द प्रदान करता है । जहाँ सामञ्जस्यता होती है वहीं पर शान्ति और आनन्द होते हैं । जहाँ शान्ति होती है वहीं सामञ्जस्यता होती है, आनन्द होता है। आनन्द के रहने पर शान्ति और सामञ्जस्यता होती है। ये तीनों एक-दूसरे के पूरक तथा एक दूसरे पर आधारित होते हैं।
धर्म की अनुभूति होती है जिसे धर्मानुभूति कहते हैं। धर्मानुभूति का सम्बन्ध हृदय से होता है। वह रहस्यात्मक होती है। व्यक्ति को इन्द्रियों से जो आनन्द होते हैं उन्हें धर्म नहीं कहा जा सकता है। वे तो सम्प्रदायगत धर्माडम्बर होते हैं। धर्मानुभूति के दो मार्ग हैं
(१) सर्व त्याग, (२) सर्व ग्रहण |
इन दोनों में से किसी एक को अपनाकर ही कोई व्यक्ति धर्म की यथार्थता का बोध कर सकता है। ये दो मार्ग विराग पर आधारित हैं, सर्वत्याग को निषेधात्मक मार्ग कहते हैं। यह भक्ति पर आधारित होता है । एक मनुष्य अपना सब कुछ त्याग देता है, क्योंकि वह समझता है कि जो कुछ भी उसके पास है, वह उसका नहीं है। सब कुछ ईश्वरकृत है। ईश्वर ही सबका कर्त्ता, धर्ता तथा हर्ता है। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में कहा है
सबहि नचावत राम गुसांई । नाचत नर मरकट की नाई । ।
अर्थात् मानव के जीवन में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में जो कुछ भी होता है या है वह ईश्वरकृत है या ईश्वर का है। किसी व्यक्ति का कुछ भी नहीं है ।
सर्वग्रहण की पद्धति विधेयात्मक होती है। सर्वग्रहण भी विराग की स्थिति है। सामान्य तौर पर ग्रहण रागसूचक होता है, परन्तु विचित्रता यह है कि जब सर्वग्रहण की बात आती है तब उसका आधार विराग ही होता है । राग तो कुछ से होता है,
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