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________________ धर्म और धर्मान्धता डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा धर्म और धर्मान्धता मानव-जीवन के प्रसिद्ध पक्ष हैं। धर्म कल्याणकारी होता है और धर्मान्धता अकल्याणकारी। अत: इन दोनों को अच्छी तरह समझने के बाद ही कोई व्यक्ति समुचित ढंग से अपना जीवन व्यतीत कर सकता है। धर्म अपने को सच्चे मानव के रूप में प्रस्तुत करना धर्म है। आदमी को आदमी समझना तथा उसके अनुकूल व्यवहार करना धर्म है। हृदय की विशालता धर्म है। इसलिए किसी व्यक्ति का धर्म उतना ही व्यापक होता है जितनी विशालता उसके हृदय की होती है। वह धर्म श्रेयष्कर होता है जिसमें सिर्फ मनुष्य ही नहीं बल्कि अन्य प्राणियों के साथ भी उचित व्यवहार होता है। भारतीय-परम्परा में धर्म को परिभाषित करते हुए कहा गया है- “धारयति इति धर्मः।” __अर्थात् जो धारण करता है वह धर्म है। धारण करने से मतलब है जो व्यक्ति . के जीवन को धारण करता है, जो उसके समाज को धारण करता है वही उसका धर्म है। इसलिए देश और काल के अनुसार धर्म के बाह्य रूपों में परिवर्तन एवं भेद देखे जाते हैं। वास्तव में धर्म तो एक ही है- मानवधर्म। धर्म का बाह्यरूप जब बाह्याडम्बर के वशीभूत हो जाता है तो उससे सम्प्रदाय जन्म लेता है जिससे धर्म में विकृति आती है। सम्प्रदाय धर्म को वास्तविक रूप में नहीं बल्कि अपने अनुकूल प्रस्तुत करता है। यद्यपि परिभाषा के अनुसार धर्म धारण करने वाला होता है, परन्तु धर्म स्वयं भी धारण किया जाता है। व्यक्ति उसी धर्म को धारित करता है जो देश और काल के अनुसार उसके अनुकूल होता है। वह उसी धर्म का पालन करता है जो उसके जीवन को सुखमय, शान्तिमय बनाता है। इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह।। ३५।। अर्थात् अपने धर्म के लिए अपना बलिदान देना श्रेय है, क्योंकि दूसरों के धर्म भयावह होते हैं। भयावह से तात्पर्य है- अनुकूलता का अभाव, जिसके कारण जीवन *. पूर्व उपाचार्य, दर्शन विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525048
Book TitleSramana 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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