SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थानकवासी सम्प्रदाय के छोटे पृथ्वीचन्द्रजी महाराज की परम्परा का इतिहास : ३१ जीवराजजी से कार्तिक शुक्ला पंचमी को २० अन्य साथियों के साथ आपने आर्हती दीक्षा ग्रहण की। वि०सं०१७२१ माघ शुक्ला पंचमी को उज्जैन में आप संघ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये। आपकी दीक्षा के सम्बन्ध में दूसरी मान्यता श्री जीवनमुनिजी की है। उनका मानना है कि 'तत्कालीन क्रियोद्धारक श्री लवजीऋषिजी एवं श्री धर्मसिंहजी से पूर्ण सहमति नहीं होने पर आपने स्वयं दीक्षा ले ली। ऐसी मानयता है कि संयमजीवन की प्रथम गोचरी में एक कुम्हार के घर से आपको राख की प्राप्ति हुई जिसे आपने सहज भाव से स्वीकार कर लिया। गोचरी में प्राप्त राख को लेकर आप अपने गुरु की सेवा में उपस्थित हुये। राख को देखकर गुरुदेव बोले- तुम बड़े सौभाग्यशाली हो। प्रथम दिवस ही तुमको राख जैसी पवित्र भिक्षा मिली है। इस कलियुग में तुम धर्मरक्षा करने में समर्थ होगे और तुम्हारे द्वारा धर्म का प्रचार एव.प्रसार होगा। तुम्हारे अनुयायी बहुत अधिक संख्या में बढ़ेंगे। जिस प्रकार प्रत्येक परिवार में हमें राख मिल सकती है उसी प्रकार तुम्हें ग्राम-ग्राम में शिष्य मिलेंगे। धर्मदासजी के ९९ शिष्यों में २२ शिष्य प्रमुख थे। इन २२ शिष्यों से ही 'बाईस सम्प्रदाय' की स्थापना हुई। धर्मदासजी के देवलोक होने के सम्बन्ध में यह उल्लेख मिलता है कि धार में एक सुनि ने अपना अन्त समय जानकर संथारा ग्रहण कर लिया, किन्तु संथारा व्रत पर वह अडिग नहीं रह पाया। व्रत की अशातना जानकर धर्मदासजी धार पहुँचे और उस मुनि की जगह स्वयं संथारा पर बैठ गये। परिणामत: आठवें दिन वि०सं० १७७२ ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी को ७२ वर्ष की आयु में आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य छोटे पृथ्वीचन्द्रजी मेवाड़ की यशस्वी सन्त परम्परा में मुनि श्री पृथ्वीचन्दजी (छोटे) का नाम सन्तरत्नों में गिना जाता है। आप पूज्य धर्मदासजी के छठे शिष्य थे। आपने तत्कालीन साधु समाज में व्याप्त शिथिलता को दूर कर क्रियोद्धार किया और मेवाड़ परम्परा के आद्य प्रवर्तक कहलाये। आपके जीवन के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आपके स्वर्गवास के पश्चात् द्वितीय पट्टधर आचार्य श्री दुर्गादासजी हये। द्वितीय पट्टधर के रूप में एक नाम और मिलता है- मुनि श्री हरिदासजी/हरिरामजी । द्वितीय पट्टधर के रूप में यह नाम 'गुरुदेव पूज्य श्री माँगीलालजी महाराज : दिव्य व्यक्तित्व' नामक पुस्तक में मिलता है। पुस्तक के रचयिता मुनि श्री हस्तीमलजी 'मेवाड़ी' हैं। 'प्रवर्तक श्री अम्बालालजी अभिनन्दन ग्रन्थ' में द्वितीय पट्टधर मुनि श्री दुर्गादासजी और तृतीय पट्टधर हरिदासजी/हरिरामजी को माना गया है जिसकी पुष्टि आचार्य हस्तीमलजी द्वारा रचित पुस्तक 'जैन आचार्य चरितावली' से भी होती है। चतुर्थ पट्टधर के रूप में मुनि श्री गंगारामजी, पंचम पट्टधर के रूप में मुनि श्री रामचन्द्रजी का नाम आता है। मुनि श्री रामचन्द्रजी के पश्चात् आचार्य पट्ट पर मुनि श्री नारायणदासजी विराजित हुये, जो छठवें पट्टधर थे। सातवें पट्टधर मुनि श्री पूरणमलजी हुये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525048
Book TitleSramana 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy