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जैन पुराणों में वर्णित जैन संस्कारों का जैनेतर संस्कारों से तुलनात्मक अध्ययन : १५
और स्वास्थ्य के निमित्त२४ किया जाता है। १०. विद्यारम्भ संस्कार में प्रायः पाँच वर्ष की आयु के पश्चात् किसी शुभ लग्न में गुरु द्वारा वर्णमाला लिख कर शिशु को अक्षरारम्भ कराया जाता है।२५ साथ ही गणपति, गृहदेवता, सरस्वती पूजन, हवन, गुरु को भेंट आदि प्रदान कर शिशु के सामाजिक-सांस्कृतिक उत्थान के साथ-साथ ज्ञान और बुद्धि के उत्थान की कामना की जाती है। ११. उपनयन संस्कार का सम्बन्ध व्यक्ति के बौद्धिक उत्कर्ष से है। इसके द्वारा व्यक्ति गुरु, वेद, यम, नियम और देवता के निकट पहुँचता है ताकि ज्ञान प्राप्त कर सके। इस संस्कार की सम्पन्नता से बालक वर्ण अथवा जाति का सदस्य बनता है और द्विज कहलाता है। यह संस्कार इस बात का प्रमाण था कि अनियन्त्रित और अनुत्तरदायी जीवन समाप्त होकर नियन्त्रित, गम्भीर और अनुशासित जीवन प्रारम्भ हुआ।२६ यह संस्कार प्रायः आठ से बारह वर्ष के बीच द्विजों द्वारा किया जाता था। बालक को यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने के लिए दिया जाता है जो यज्ञ से सम्बद्ध माना गया है। देवी-देवताओं के पूजन-हवन के साथ ही बालक को जनेऊ, कौपीन, मेखला, उत्तरीय, मृगचर्म, दण्ड धर्मशास्त्रीय मन्त्रोच्चारण के साथ धारण कराया जाता है।२७ जनेऊ के तीन धागे सत्, रज और तम गुणों के प्रतीक हैं। साथ ही ऋषि, देव और पितृ ऋण का स्मरण दिलाते हैं। आचार्य गायत्री मन्त्र के साथ शिष्य को उपदेश देते हैं। उपनयन के बाद विद्यारम्भ प्रारम्भ होता था।२८ हिन्दू समाज में जीवन को अनुशासित, दायित्व निर्वाह, निस्पृह और निर्लिप्त बनाने में उपनयन संस्कार का महत्त्वपूर्ण योगदान है। १२. वेदारम्भ संस्कार में शिष्य गुरु सानिध्य में वेदाध्ययन कर बौद्धिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष२९ प्राप्त करता है। १३. केशान्त संस्कार में विद्यार्थी के दाढ़ी आदि का पहली बार क्षौरकर्म (काटना) होता है।३० इसके द्वारा युवा को ब्रह्मचर्य और सदाचरण का स्मरण कराया जाता है। १४. समापवर्तन संस्कार में शिक्षा पूर्ण होने पर गुरुकुल से घर लौटने के समय स्नातक स्नान कर हवन-पूजन के बाद दण्ड, मेखला आदि त्याग कर वस्त्राभूषण पहनता है और आचार्य का आशीर्वाद और आज्ञा पाकर गह की ओर प्रत्यावर्तन करता है। १५. विवाह संस्कार के उद्देश्यों में वंशवृद्धि प्रधान उद्देश्य है। सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का निर्वाह विवाह के द्वारा ही सम्भव था। विवाह ऐसा बन्धन है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता तथा आजन्म एक साथ रहने के लिए वचनबद्ध किया जाता है। समस्त ऋणों से उऋण होने के लिए धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए विवाह आवश्यक माना गया है। विवाह के बिना व्यक्ति निस्तेज माना जाता है।३२ विवाह के अन्तर्गत वर-वधू की विभिन्न योग्यताएँ, गुण, गोत्र और वर्ण आदि का विचार किया जाता है। विवाह संस्कार के समय वाग्दान, वर-वरण, कन्यादान, विवाह-होम, पाणिग्रहण, हृदयस्पर्श, सप्तपदी, अश्वारोहण, सूर्यावलोकन, ध्रुवदर्शन, त्रिरात्र व्रत और चतुर्थी कर्म आदि का विधान था।३२ १६. अन्त्येष्टि संस्कार में विधिवत मन्त्रोच्चार के साथ शव विसर्जन किया जाता है। जन्म के बाद संस्कारों द्वारा मनुष्य इस लोक को विजित करता है
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