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१४ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ प्रकट करना और ईश्वर को पुन: अप्रसन्न न करने का संकल्प लेना होता है। इसके पश्चात् पादरी के सामने उसे अपने पाप को स्वीकार करते हुए उससे क्षमा प्राप्त करनी होती है तथा साथ ही उसके आदेशानुसार तीर्थयात्रा, प्रार्थना या दान में से किसी एक प्रायश्चित्त को अंगीकार करना होता है। ये प्रायश्चित्त सत्कर्म कहलाते हैं। इसी प्रकार बौद्धधर्म में स्वयं के पापों की गुरु के समक्ष स्वीकारोक्ति 'निज्जझत' कहलाता है और प्रायश्चित्त किया जाता है। जैनधर्म में भी आजीविका करने वाले द्विजों को अपने लगे हुए दोषों की शुद्धि के लिए पक्ष, चर्या और साधना का पालन करने का नियम है। ५. विवाह संस्कार चर्च में सम्पन्न होता है जिसके बाद पति-पत्नी का सम्बन्ध अविच्छेद्य समझा जाता है। ६. अन्तिम अभिषेक अर्थात् मृत्यु संस्कार में पुजारी मरणासन्न व्यक्ति की आत्मा को चिरशान्ति और स्वर्ग में पहुँचने के लिए शक्ति प्रदान करता है। ७. पवित्र यूकारिस्ट संस्कार अन्तिम भोज (लास्ट सपर) से सम्बन्धित है। वस्तुतः यही कैथॉलिक धर्म का केन्द्रीय रहस्य है। इसी के आधार पर ईसाई धर्म में सामूहिक प्रार्थना के महत्त्वपूर्ण उत्सव का आरम्भ हुआ, जिसके लिए सुसज्जित और विशाल गिरजाघरों का निर्माण हुआ।१४
सोलह हिन्द संस्कारों में क्रमशः १. गर्भाधान संस्कार में विवाहोपरान्त पहले पहल पुरुष स्त्री में विधिवत उपयुक्त वातावरण में अपना बीज स्थापित कर सन्तान की कामना करता है।५ इसे निषेक (ऋतुसंगम) चतुर्थी कर्म अथवा चतुर्थी होम६ भी कहा गया है। २. पुंसवन संस्कार गर्भ के तीसरे माह में तेजस्वी पुत्र की कामना से किया जाता है। ३. सीमन्तोन्नयन संस्कार गर्भ के चौथे माह में गर्भिणी स्त्री को विघ्न बाधाओं से बचाने के लिए अनेक अनुष्ठानों द्वारा सम्पन्न होता है। ४. जातकर्म संस्कार अनिष्टकारी शक्तियों के प्रभाव से नवजात को बचाने के लिए किया जाता है। ५. नामकरण संस्कार प्रायः जन्म के दस से तीस दिन की अवधि में शुभ लग्न में देवपूजन और यज्ञाहूति के साथ सम्पन्न किया जाता है।२० ६. निष्क्रमण संस्कार सामान्यत: जन्म के बारहवें दिन से चौथे माह तक शुभ लग्न में सम्पन्न होता है।२१ इसमें शिशु को प्रथम बार घर के बाहर लाकर वेद मन्त्रों के पाठ के साथ माता-पिता द्वारा सूर्य दर्शन कराया जाता है। ७. अन्नप्राशन संस्कार जन्म के पाँच माह बाद विधिवत् शिशु को सर्वप्रथम अन्न, दूध, मधु, घी, दही का मुख से स्पर्श कर सम्पन्न२२ होता है। ८. चूड़ाकरण संस्कार में शिशु के गर्भकाल के सिर के बाल और नख कटवाये जाते हैं। इसे मुण्डन भी कहा गया है। यह संस्कार देवालयों में शुभ दिन नान्दीमुख पितरों का विधिपूर्वक हवन-पूजन, मातृकाओं और देवों की स्तुति एवं अर्चन के साथ सम्पन्न की जाती है। चूड़ाकरण से दीर्घायु और कल्याण प्राप्त होने की मान्यता है।२३ शरीर की स्वच्छता और पवित्रता से शिशु का परिचय कराना भी इसका उद्देश्य था। ९. कर्णच्छेदन संस्कार विभिन्न धार्मिक क्रियाओं के साथ शिशु के शोभन, अलंकरण
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