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७४ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक सर्ववृत्ति-विराग की झलक एवं अभाव के स्थायित्व के न होने के कारण 'शम' को स्थायी भाव एवं 'निर्वेद' को व्यभिचारी भाव माना जाना ही उचित है।५१ अभिनवगुप्त के मत में तत्त्व-ज्ञान से उत्पन्न निर्वेद 'शान्त रस का स्थायी भाव एवं अन्य कारणों से उत्पन्न होने पर यह व्यभिचारी भाव होता है।५२
शान्त रस के उद्दीपन विभाव-तत्त्वज्ञान, वैराग्य, चित्तशुद्धि आदि हैं।५३ रामचन्द्र-गुणचन्द्र५४ ने यत्किञ्चित् परिवर्तन के साथ यही उद्दीपन बताये हैं; किन्तु साहित्यदर्पणकार५५ ने पुण्याश्रम, हरिक्षेत्र, तीर्थ, रमणीक वनादि एवं महापुरुषों का सङ्गादि उद्दीपन विभावों को उल्लिखित किया है।
यम, नियम, अध्यात्म, ज्ञान, ध्यान, धारणा, उपासना, सभी प्राणियों के प्रति दया, प्रव्रज्या-ग्रहण आदि अनुभावों द्वारा इसका अभिनय किया जाता है।५६ व्यभिचारी भाव-निर्वेद, स्मृति, धृति, सर्वाश्रम शौच, स्तम्भ, रोमाञ्च आदि हैं।५७ शान्त रस की अभिनेयता के सन्दर्भ में नीचे कुछ उदाहरण 'नागानन्द' से उद्धृत हैं।
नाट्यकृतियों में से नागानन्द में शान्त रस प्राप्य है। प्रथमाङ्क में जीमूतवाहन के निर्वेद व्यञ्जक वचनों में,५८ सुरभित होमगन्ध से युक्त तपोवन के वर्णन में५९ शान्त रस की प्रतीति होती है। तपोवन के प्रशान्त वातावरण का वर्णन करते हुए जीमूतवाहन कहता है कि यह तपोवन कितना प्रशान्त एवं रमणीय है, जहाँ प्रसन्न मुनिगण संदिग्ध वेदमन्त्रों का विचार कर रहे हैं, जहाँ पढ़ते हुए विद्यार्थीगण गीली समिध् को तोड़ रहे हैं और जहाँ तापसों की कन्याएं छोटे-छोटे पौधों के आलबाल को जल से भर रही हैं।६०
इस स्थल पर आलम्बन विभाव, चित्तशुद्धि, वनगमन, मलयपर्वत, तपोवन आदि उद्दीपन विभाव; ज्ञान-धारणा, सभी प्राणियों के प्रति दया आदि अनुभाव तथा निर्वेद, धृति आदि व्यभिचारी भावों से पुष्ट शान्त रस है।
___ प्रथम अङ्क में जीमूतवाहन के “तिष्ठन् भाति पितुः पुरो ......'६१ इत्यादि श्लोक में जीमूतवाहन राज्य-सुखादि की अपेक्षा माता-पिता की सेवा में सुख-शान्ति की अनुभूति का कथन करता है। अत: इसमें शान्त रस की प्रतीति होती है।
इस स्थल पर आलम्बन जीमूतवाहन, उद्दीपन जीमूतवाहन की चित्तशुद्धि, अनुभाव, नियम एवं जीमूतवाहन की सुख की अनुभूति का कथनादि तथा धृति एवं शौच व्यभिचारी भाव हैं।
जीमूतवाहन के 'तत्त्वज्ञानजन्य निर्वेद को धोतित करने वाले निम्नलिखित कथनों में भी 'शान्तता' अभिव्यक्त हो रही है
'सर्वाशुचि ...... पापानि कुर्वते।।'६२ एवं 'मेदोऽस्थिमांस ...... सदा वीभत्सदर्शने।।'६३
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