________________
प्रकीर्णक साहित्य : एक अवलोकन : ६१ ८३- वैश्रमणोपपात
नं०,पा०,ध०,ठा० ८४- वियाहचूलिका
व्य०,नं०,पा०,ध०,ठा० ८५- संक्षपित दशा
ठा० ७५५ ८६- संग्रहणी
विधि० ८७- समुत्थानश्रुत
व्य० ,नं० ,पां०, और ८८- संलेखना
नं०,पा०। संक्षिप्त नाम संकेत-सूची
ठा० = ठाणांग, नं० = नन्दीसूत्र, व्य० = व्यवहार, ध० = धवला, विधिः = विधिमार्गप्रपा, पा० = पाक्षिकसूत्र
इस प्रकार कुल उपलब्ध और अनुपलब्ध (पर प्रमाणसहित) प्रकीर्णकों की कुल संख्या ८८ है।
वर्तमान में श्वेताम्बर तेरापंथी और स्थानकवासी सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगम-साहित्य के अन्तर्गत मान्य नहीं करते हैं तथा मूर्तिपूजक सम्प्रदाय भी केवल दस प्रकीर्णक को ही आगमों के अन्तर्गत मान्य करता है। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार षट्खण्डागम और कसायपाहुड को छोड़ शेष आगमों का लोप हो चुका है। इन परिस्थितियों में प्रकीर्णक साहित्य का अधिकांश भाग उपेक्षित रहा है। कुछ ही प्रकीर्णकों का अनुवाद सीमित संस्थानों द्वारा हो पाया है यद्यपि इसके बृहद् अध्ययन की आवश्यकता है। ऋषिभाषित पर जर्मनी से प्रकाशित संस्करण में शुब्रिग ने इसकी भूमिका में इसके ऐतिहासिक महत्त्व पर प्रकाश डाला है। प्रो० सागरमल जैन ने भी अपनी पुस्तक ऋषिभाषित : एक अध्ययन में भी जैन-साहित्य के ऐतिहासिक विकासक्रम में प्रस्तुत प्रकीर्णक की महत्त्वपूर्ण भूमिका को उजागर किया है। इनकी विषयवस्तु के अध्ययन से लगता है कि अङ्ग आगमों की अपेक्षा साधना की दृष्टि से ये काफी महत्त्वपूर्ण है। प्रकीर्णकों के अध्ययन की दिशा में कोई प्रयास न होने की वजह से इनमें से अधिकांश नष्ट होने के कगार पर हैं या हो गये हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इन प्रकीर्णकों के खोज, सम्पादन, प्रकाशन, पाठ की प्रामाणिकता, हिन्दी सहित विभिन्न भाषाओं में अनुवाद तथा इसके गम्भीर समीक्षात्मक अध्ययन की बृहद योजना बनाकर इस दिशा में कार्य हो। फिलहाल आगम, अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर द्वारा प्रकीर्णकों के हिन्दी अनुवाद का कार्य हाथ में लिया गया है लेकिन इनके विषय की व्यापकता को देखते हुए इस दिशा में और भी प्रयास होने की जरूरत है जिससे जैन-प्राकृत-साहित्य और इस प्रकार भारतीय साहित्य के एक पक्ष को समग्रता में प्रस्तुत किया जा सकता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org