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५६ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक राजधानी का विस्तार से निरूपण किया गया है। इस प्रकीर्णक के प्रकाशित संस्करण हैंमहावीर जैन विद्यालय से मूल तथा चन्दनसागर ज्ञान भण्डार, बैजलपुर एवं आगम संस्थान, उदयपुर से हिन्दी अनुवाद के साथ।
२९- वीरस्तव- प्रस्तुत प्रकीर्णक में ४३ गाथाएँ हैं। इसमें महावीर की स्तुति उनके छब्बीस नामों द्वारा की गयी है। प्रथम गाथा में मङ्गल और अभिधेय है। तत्पश्चात् महावीर के छब्बीस नामों को गिनाया गया है, जो इस प्रकार हैं- (१) अरूह, (२) अरिहन्त, (३) अरहन्त, (४) देव, (५) जिण, (६) वीर, (७) परमकारुणिक, (८) सर्वज्ञ, (९) सर्वदर्शी, (१०) पारग, (११) त्रिकालविद्, (१२) नाथ, (१३) वीतराग, (१४) केवली, (१५) त्रिभुवन गुरु, (१६) सर्व, (१७) त्रिभुवन वरिष्ठ, (१८) भगवन्, (१९) तीर्थङ्कर, (२०) शक्र-नमस्कृत, (२१)जिनेन्द्र, (२२) वर्द्धमान, (२३) हरि, (२४) हर, (२५) कमलासन, और (२६) बुद्ध। इसके आगे इन नामों का अन्वयार्थ किया गया है। इनमें अरिहन्त के तीन अरहन्त के चार, भगवान् के दो तथा शेष के एक-एक अन्वयार्थ हैं। इस ग्रन्थ के प्रकाशित संस्करण हैं- हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला एवं महावीर जैन विद्यालय से मूल तथा आगम संस्थान उदयपुर से हिन्दी अनुवाद के साथ।
३० - गच्छाचार- इस प्रकीर्णक में १३७ गाथाएँ हैं। यह प्रकीर्णक छेद सूत्रों के आधार पर रचा गया है। यह ग्रन्थ आगम-विहित मुनि-आचार का समर्थक और शिथिलाचार का विरोधी है। इस ग्रन्थ का उल्लेख सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ, १४वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है। इसमें मङ्गल-अभिधेय के पश्चात् उन्मार्गगामीगच्छ में संवास से हानि, सदाचारीगच्छ में संवास के गुण, आचार्यस्वरूप का वर्णन, साधुस्वरूप का वर्णन, आर्यास्वरूप का वर्णन कर अन्त में ग्रन्थ का उपसंहार किया गया है। प्रस्तुत प्रकीर्णक के प्रकाशित सात संस्करण हैं। ये हैं- बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद; आगमोदय समिति; हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला तथा महावीर जैन विद्यालय से मूल रूप में और दयाविमल जैन ग्रन्थमाला से संस्कृत, भूपेन्द्र साहित्य समिति, आहोर से संस्कृत एवं हिन्दी तथा आगम संस्थान उदयपुर से हिन्दी अनुवादसहित।
३१ - सारावली- इसमें ११६ गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ में पुण्डरीक अर्थात् शत्रुञ्जय तीर्थ का स्तवन किया गया है, इसके प्रारम्भ में कहा गया है कि जिस भूमि पर पञ्चपरमेष्ठियों का विचरण होता है, उसे देव और मनुष्यों के लिए पूज्य माना जाता है। १२ धातकी खण्ड के नारद ऋषि दक्षिण भरत क्षेत्र में स्थित पुण्डरीक शिखर पर देवों का प्रकाश देखकर पुण्डरीक शिखर की पूजा का कारण ज्ञात करने के उद्देश्य से अतिमुक्तक कुमार के पास जाते हैं। अतिमुक्तक कुमार केवलि से जिज्ञासा करने पर वे इसकी उत्पत्ति, पूज्य होने और पुण्डरीक नाम पड़ने का कारण बताते हैं। तीर्थोत्पत्ति की कथा के पश्चात् यहाँ सिद्ध होने वाले अनेक आत्माओं का वर्णन है। पुण्डरीक पर्वत की महिमा, दान अर्थात् जीव के प्रति दया का फल, इसमें दान न देने से दुःख और दान देने से सुख की प्राप्ति का विवेचन है। अन्त
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