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प्रकीर्णक साहित्य : एक अवलोकन : ४९ और उत्तर गुणों में प्रमाद की निन्दा, एकत्वभावना, संयोगसम्बन्ध व्युत्सर्जना, असंयम आदि की निन्दा, मिथ्यात्व का त्याग, अज्ञात अपराध की आलोचना का स्वरूप, शल्योद्धरण प्ररूपण, आलोचना का फल, निर्वेद उपदेश, पण्डितमरण का प्ररूपण, पञ्चमहाव्रत की रक्षा, तप का महात्म्य, अनाराधक का स्वरूप, आराधना का महात्म्य, पाप आदि का प्रत्याख्यान, सभी जीवों के प्रति क्षमाभाव, प्रत्याख्यान पालन के फल आदि का विस्तार से वर्णन है। वर्तमान में इसके प्रकाशित संस्करण हैं- बाबू धनपत सिंह-मुर्शिदाबाद, बालाभाई ककलभाई-अहमदाबाद, आगमोदय समिति, हर्ष पुष्यामृत जैन ग्रन्थमाला एवं महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से मूल प्राकृत एवं आगम संस्थान उदयपुर से हिन्दी अनुवाद के साथ। इसके कर्ता अज्ञात हैं।
६- संस्तारक-- इसके भी कर्ता अज्ञात हैं। अन्तिम आराधना के प्रसंग में स्वीकार किये जाने वाले दर्भादि आसन को संस्तारक कहा जाता है। इसमें कुल १२२ गाथाएँ हैं। संस्तारक में मंगलाचरण के बाद संस्तारक के गुणों, संस्तारक का स्वरूप, इसके लाभ और सुख की महिमा के वर्णन तथा संस्तारक ग्रहण करने वाले पुण्यात्माओं के नामोल्लेख हैं। अन्त में संस्तारक ग्रहण करने की क्षमापणा और भावना का निरूपण है। इस प्रकीर्णक के प्रकाशित सात संस्करण इस प्रकार हैं- बाबू धनपत सिंह-मुर्शिदाबाद, बालाभाई ककलभाई-अहमदाबाद, आगमोदय समिति, हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, जैनधर्म प्रसारक सभा से केवल मूल तथा आगम संस्थान, उदयपुर से हिन्दी अनुवाद के साथ।
७- चतुःशरण- प्रस्तुत प्रकीर्णक में कुल २७ गाथाएँ हैं। इसके कर्ता का कोई उल्लेख नहीं है। इसकी प्रथम गाथा में कुशलता हेतु चतुःशरणगमन, दुष्कृत गर्दा और सुकृत का अनुमोदन- इन तीन अधिकारों का निर्देश है। इसी के अनुसार विषय का प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ केवल महावीर जैन विद्यालय से ही प्रकाशित है।
. .. भक्तपरिज्ञा- भक्तपरिज्ञा में १७२ गाथाएँ हैं। इसके कर्ता वीरभद्र हैं। इसमें मङ्गल-अभिधेय के पश्चात् ज्ञान का महात्म्य, अशाश्वत सुख की निष्फलता, जिनाराधना में शाश्वत सुख, अभ्युद्धत मरण के तीन भेद, भक्तपरिज्ञा मरण के दो भेद, शिष्य द्वारा व्याधिग्रस्त होने पर गुरु से भक्तपरिज्ञा मरण की अनुमति माँगना तथा गुरु द्वारा इसकी अनुमति के साथ आलोचना का उपदेश, प्रायश्चित्त पञ्चमहाव्रत का आरोपण, सामयिक का आरोपण, शिष्य द्वारा क्षमणादि, गुरु द्वारा अनुशासन का उपदेश आदि के विस्तृत वर्णन के पश्चात् भक्तपरिज्ञा के महात्म्य का वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ बाबू धनपत सिंह-मुर्शिदाबाद, बालाभाई ककलभाई-अहमदाबाद, आगमोदय समिति, हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, महावीर जैन विद्यालय तथा जैनधर्म प्रसारक सभा से मूल रूप में प्रकाशित है।
९- चतुःशरण कुसलानुबन्धी- प्रस्तुत प्रकीर्णक आचार्य वीरभद्र की कृति है।
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