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________________ ४८ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक आलोचना के दोषों आदि का नाम सहित वर्णन किया गया है। इसका प्राकृत संस्करण बाबू धनपतसिंह मुर्शिदाबाद (ई० सन् १८८६), बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद (ई० सन् १९०६), जैनधर्म प्रसारक सभा (ई० सन् १९०६), आगमोदय समिति (ई० सन् १९२६, छायासहित); हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला (ई० सन् १९७५) और महावीर जैन विद्यालय, बम्बई (ई० सन् १९८४) से प्रकाशित हो चुका है। अभी तक इसका और हिन्दी अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ है। २-४- आतुरप्रत्याख्यान-- इस नाम से दो और प्रकीर्णक हैं। प्रस्तुत आतुरप्रत्याख्यान गद्य-पद्य मिश्रित है। इसमें सूत्रों और गाथाओं की कुल संख्या तीस है। इसमें शरीर के ममत्व त्याग, सागार और निरागार प्रत्याख्यान तथा सभी जीवों के प्रति क्षमापना की गयी है। इसके लेखक अज्ञात हैं। दूसरे आतुरप्रत्याख्यान में कुल ३४ गाथाएँ हैं। इसके कर्ता भी अज्ञात हैं। इसमें उपोद्घात, अविरति प्रत्याख्यान, मिथ्यादुष्कृत, ममत्वत्याग, शरीर के लिए उपालम्भ, शुभभावना, अरहन्तादि स्मरण, पापस्थानक त्याग आदि शीर्षक से विषय वर्णित हैं। तीसरे आतुरप्रत्याख्यान के कर्ता वीरभद्र हैं। इसमें कुल ७१ गाथाएँ हैं। इसमें मरण के बालमरण, बालपण्डित मरण और पण्डितमरण- तीन भेद कर विषय का प्रतिपादन किया गया है। ये तीनों आतुरप्रत्याख्यान (मूल) पइण्णयसुत्ताई में सङ्कलित हैं। वीरभद्रकृत आतुरप्रत्याख्यान के प्रकाशित संस्करण बाबू धनपत सिंह मुर्शिदाबाद, बालाभाई ककलभाई अहमदाबाद, अगमोदय समिति, हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, जैनधर्म प्रसारक सभा-मुल्तान, ऋषि स्मारक समिति, धूलिया से मूल एवं तत्त्वविवेचनसभा (१९०१) से गुजराती, मनमोहन यशमाला, पायधुनी, मुम्बई (१९५०) से हिन्दी एवं मनमोहन यशस्मारक (१९३४) से गुजराती और हिन्दी अनुवाद के साथ हैं।। ५- महाप्रत्याख्यान- इस प्रकीर्णक का उल्लेख नन्दीसूत्र तथा पाक्षिकसूत्र में उपलब्ध होता है। नन्दिसूत्रचूर्णि, हरिभद्रीय वृत्ति तथा पाक्षिकसूत्र वृत्ति में इस प्रकीर्णक का परिचय देते हुए कहा गया है “महाप्रत्याख्यानम् महच्च तत् प्रत्याख्यानं चेति समास:। थेरकप्पेण जिनकप्पेण वा विहरेत्ता अंते थेरकप्पिया बारस वासे संलेहं करेत्ता, जिणकप्पिया पुण विहारेणेव संलोढा तहावि जहाजुत्तं संलेहं करेत्ता निव्वाघातं सचेट्ठा चेव भवचरिमं पच्चक्खंति, एवं सवित्थरं जत्थऽज्झयणे वणिजइ तमज्झयणं महापच्चक्खाणं।" अर्थात् महाप्रत्याख्यान शब्द महान् और प्रत्याख्यान से बना है। स्थविरकल्पी और जिणकल्पी में स्थविरकल्पी विहार के अन्त में बारह वर्ष की सल्लेखना करते हैं, जिनकल्पी विहार के क्रम में जब जैसी आवश्यकता हो सल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं और अन्त समय तक के लिए प्रत्याख्यान कर लेते हैं। इसका विस्तारपूर्वक वर्णन जिस अध्ययन में हो वह महाप्रत्याख्यान है। महाप्रत्याख्यान में कुल १४२ गाथाएँ हैं। इनमें मंगल अभिधेय के पश्चात् त्रिविधा व्युत्सर्जना, सर्वजीवक्षमणा, निन्दा-गर्दा आलोचना, ममत्वछेदन, आत्मा का स्वरूप, मूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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