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________________ ३४ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक कवियों ने अपने सिद्धान्तों का प्रचार करना चाहा था, परन्तु जिन कवि के अधिकांश ग्रन्थ सूफी विचार पद्धति तथा प्रेमोत्कर्ष-रहित प्रेमाख्यानक काव्य हैं। इतना ही नहीं कवि जानकी इन रचनाओं में मसनवी की परम्परा का पालन भी नहीं हुआ है।३ यथार्थ में भारतीय साहित्य में अधिकतर प्रेम कथाएँ अपने-अपने मत का प्रचार करने के लिये विभिन्न सन्त कवियों के द्वारा लिखी जाती रही हैं, क्योंकि मनोरंजन तथा प्रभाव की दृष्टि से इन कथाकाव्यों का अत्यन्त महत्त्व है और इसीलिए इन कथाओं में सामाजिक अभिप्राय तथा सामान्य विश्वास भली-भाँति निहित हैं। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जिन कथानक रूढ़ियों का उल्लेख किया है, उनमें से अपभ्रंश तथा हिन्दी के प्रेमाख्यानक एवं कथा काव्यों में निम्नलिखित रूढ़ियों का समावेश मिलता है। (१) चित्र या पुतली में किसी सुन्दरी को देखकर उस पर मोहित हो जाना, (२) रूप परिवर्तन, (३) नायक का औदार्य, (४) उजाड़ नगरी, (५) विजनवल में सुन्दरी से साक्षात्कार, (६) शत्रु से युद्ध कर या मत्त हाथी को वश में करने पर सुन्दरी से प्रेम या विवाह, (७) जल की खोज में जाने पर प्रिया-वियोग और ऋषि, विद्याधर या असुर का वर्णन, इत्यादि। - इसी प्रकार विवाह के पूर्व नायिका-प्राप्ति का प्रयत्न तथा लौकिक और दैवी बाधाओं: की योजना अपभ्रंश और हिन्दी के लगभग सभी प्रबन्ध-काव्यों में मिलती है।५ सिंहल द्वीप की यात्रा का वर्णन भी अपभ्रंश के सभी कथाकाव्यों में तथा हिन्दी के लगभग सभी प्रेमाख्यानक काव्यों में हुआ है और समुद्र में जहाज के भग्न होने तथा नायक-नायिका के बिछुड़ने की घटना भी समान रूप से वर्णित मिलती है। प्राय: सूफी प्रबन्ध काव्यों की कथा का अन्त संयोगमूलक दुखान्त होता है; किन्तु कवि मंझन, जान, उसमान, नूर मुहम्मद, ख्वाजा अहमद और शेख रहीम की अधिकतर रचनाएँ सुखान्त हैं।६ अपभ्रंश के कथाकाव्यों में भी विरह की तीव्रता के पश्चात् संयोग तथा लौकिक सुख का वर्णन मिलता है। इसलिए वियोग सभी कथाकाव्यों में अनिवार्य रूप से वर्णित हैं। प्रेमाख्यानक कथाकाव्यों में तो प्रेम एवं वियोग ही मुख्य हैं। इस प्रकार अपभ्रंश तथा हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों में कई बातें समान रूप से वर्णित लक्षित होती हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं(१) धनपाल की भविष्यदत्तकथा और जायसी के पद्मावत का पूर्वार्द्ध भाग लोककथा है और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक जान पड़ता है। दोनों ही प्रबन्धकाव्य दो खण्डों में विभक्त है। विषय भी लगभग दोनों में समान है- अभिप्राय की दृष्टि से मूलरूप में। विरह-वर्णन, नख-शिख-वर्णन, ऋतु-वर्णन और कामदशाओं आदि के वर्णन रीतिकालीन प्रवृत्तियों का उदय स्पष्ट रूप से देखा जाता है। (३) साहसिक कार्यों तथा अतिमानवीय बातों का समावेश दोनों में मिलता है। ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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