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________________ १७६ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक है। मुनि भुवनचन्द्रजी म.सा० द्वारा लिखित विहंगावलोकन भी अत्यन्त सारगर्भित है। इस अङ्क की एकविशेषता यह है कि इसमें १३ से १८ अङ्क तक के आलेखों की तालिका भी दी गयी है। हमें पूर्ण विश्वास है कि अनुसंधान के पूर्व अङ्कों की भाँति यह अङ्क भी प्राकृत साहित्यजगत् में प्रसंशा प्राप्त करेगा। आचार्यश्री भविष्य में भी अनुसन्धान के माध्यम से साहित्यजगत् को इसी प्रकार की महत्त्वपूर्ण शोध सामग्री प्रस्तुत करते रहेंगे, ऐसा हमें पूर्ण विश्वास है। पत्रिका की साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक व मुद्रण टिरहित है। ऐसी विशिष्ट पत्रिका के प्रकाशन के लिये सम्पादक और प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं। -- शिवप्रसाद रामानंद विजय, लेखक- डॉ० मंगला प्रसाद, 'अपरूप', प्रथम संस्करण, ई० सन् २००१, प्रकाशक- कल्लोल प्रकाशन, नासिरपुर, वाराणसी, पृष्ठ सं० ६०, मूल्य रुपया एक सौ। 'भक्त रत्नावली' के अनुसार स्वामी रामानन्द मध्ययुगीन वैष्णव भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक, संचालक और शीर्षस्थ युगपुरुष थे। काशी में पञ्चगङ्गाघाट स्थित इनका आश्रम आन्दोलन की गतिविधियों का केन्द्र था। इनकी शिष्य मण्डली इन्हें राम का अंशावतार मानती थी। अनुश्रुति प्रसिद्ध है 'भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाए रामानन्द', आचार्य शङ्कर के मायावाद-अद्वैतवाद के विरुद्ध दक्षिण के ही चार आचार्यों ने भक्ति के . विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, द्वैत आदि सिद्धान्तों का प्रवर्तन किया। इनमें भ्री सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य रामानुज का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त प्रतिपादित किया। रामानन्द इसी श्री सम्प्रदाय के युगपुरुष थे। प्रयाग निवासी ब्राह्मण दम्पती पुण्यसदन और सुशीला ने मनु-सतरूपा की भाँति पुत्र प्राप्ति के लिए बड़ा जप-तप किया तो भगवान् राम ने देश को तत्कालीन दुर्दशा से मुक्त कराने के लिए ब्राह्मण दम्पती के यहाँ रामानन्द के रूप में अवतार लिया। उनकी शिक्षा-दीक्षा काशीस्थ श्रीमठ के आचार्य राघवानन्द के सान्निध्य में हुई जो रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा के एक दीप्तिमान आचार्य थे। इसी पीठ पर राघवानन्द के पश्चात् स्वामी रामानन्द प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने हिन्दू समाज के सबसे कठिन दौर में शूद्रों और स्त्रियों को सामाजिक सम्मान दिलाने का क्रान्तिकारी कार्य किया। उनका आदेश था 'हरि को भजै सो हरि का होई।' उनके बारह शिष्यों में दो काशीवासी शिष्य रैदास 'चमार' और कबीर जुलाहे थे। दो स्त्रियाँ भी उनकी शिष्यायें थी। इन्हीं स्वामी रामानन्द के अलौकिक कार्यों पर आधारित महाकाव्य 'रामानन्दविजय' की रचना डॉ० मंगला प्रसाद ने की है। शङ्कर दिग्विजय के तर्ज पर महाकाव्य का नामकरण 'रामानन्दविजय' रखा गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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