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डॉ० सागरमल जैन द्वारा गुणस्थान-सिद्धान्त के विकास क्रम की गवेषणा
डॉ० धर्मचन्द जैन*
सम्प्रति जैनविद्या के अग्रगण्य विद्वान् डॉ० सागरमल जैन ने जैनधर्म-दर्शन, भाषा, संस्कृति, कला, इतिहास आदि सभी आयामों पर अपनी गवेषणापूर्ण लेखनी चलायी है। डॉ० जैन के लेखों एवं कृतियों में उनका गहन अध्ययन, मनन, मौलिक सूझ एवं प्रमाणोपेत तर्क सर्वत्र झलकते हैं। प्रस्तुत लेख में उनकी कृति 'गुणस्थान-सिद्धान्त : एक विश्लेषण' पर विचार किया जायेगा।
पर्ण गवेषणापूर्वक लिखी गयी इस कृति में ९ अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में गुणस्थान-सिद्धान्त के उद्भव एवं विकास की सारभूत चर्चा है। द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ अध्यायों में क्रमश; तत्त्वार्थसूत्र, श्वेताम्बर-साहित्य एवं दिगम्बर-साहित्य में गुणस्थान-सिद्धान्त के बीजों का अन्वेषण एवं विश्लेषण किया गया है। ये चारों अध्याय लेखक के विगत चार-पाँच वर्षों के शोध प्रयत्नों का परिणाम है। पञ्चम अध्याय में जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास पर प्रकाश डाला गया है। षष्ठ अध्याय में उनके स्वरूप पर विचार करते हुए समीक्षा की गयी है। सप्तम अध्याय लेखक ने नया लिखा है जिसमें कर्म-सिद्धान्त के विभिन्न पक्षों का गुणस्थान-सिद्धान्त के साथ अत्यन्त निकट का सम्बन्ध बताते हुए कहा गया है कि जैन कर्म-सिद्धान्त को समझे बिना गुणस्थान-सिद्धान्त को तथा गुणस्थान-सिद्धान्त को समझे बिना कर्म-सिद्धान्त को नहीं जाना जा सकता।' इस अध्याय में कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता का विवेचन भी गुणस्थानों के आधार पर किया गया है। अष्टम अध्याय में गुणस्थान-सिद्धान्त की अवधारणाओं की बौद्ध, आजीवक, गीता, योगवाशिष्ट, योगदर्शन आदि दर्शनों में प्रतिपादित आध्यात्मिक विकास-क्रम से तुलना की गयी है। नवम अध्याय में गति, इन्द्रिय आदि १४ मार्गणाओं का विवेचन गुणस्थानों के आधार पर किया गया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ गुणस्थान-सिद्धान्त के उद्भव एवं विकास से लेकर उसके विभिन्न आयामों का सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत करता है।
प्रस्तुत कृति की उपयोगिता असन्दिग्ध है, क्योंकि इसमें गुणस्थान-सिद्धान्त का संक्षेप में सर्वाङ्ग विवेचन उपलब्ध है। इस दृष्टि से अध्याय सात एवं आठ विशेष उल्लेखनीय हैं। *. एसोशिएट प्रोफेसर, संस्कृत-विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर(राज.).
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