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________________ खरतरगच्छ - आद्यपक्षीयशाखा का इतिहास शिवप्रसाद खरतरगच्छ से समय-समय पर उद्भूत विभिन्न शाखाओं में आद्यपक्षीयशाखा भी एक है। खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा के प्रवर्तक आचार्य जिनवर्धनसूरि के प्रशिष्य जिनसमुद्रसूरि के पट्टधर आचार्य जिनदेवसूरि से वि०सं० १५६६ या १५६९ में यह शाखा अस्तित्व में आयी। इस शाखा का उक्त नामकरण क्यो हुआ? किस कारण से एवं किस स्थान से यह शाखा अस्तित्व में आयी? ये सभी प्रश्न प्रमाणों के अभाव में अभी अनुत्तरित ही हैं। यद्यपि इस शाखा से सम्बद्ध साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य , मिलते हैं तथापि खरतरगच्छ की अन्य शाखाओं की तुलना में उनकी संख्या स्वल्प ही है। साम्प्रत निबन्ध में उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर खरतरगच्छ की इस शाखा के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। आद्यपक्षीयशाखा के आद्यपुरुष जिनदेवसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित न तो कोई प्रतिमा मिलती है और न ही इनके द्वारा रचित कोई साहित्यिक कृति ही मिलती है; किन्तु इनके शिष्य एवं पट्टधर जिनसिंहसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित तीन जिन प्रतिमाएँ आज मिलती हैं जो वि०सं० १६१७-२७ की हैं। प्रथम लेख वि०सं० १६१७ का है जो शान्तिनाथ की धातु-प्रतिमा पर उत्कीर्ण है। श्रीबुद्धिसागरसूरिजी ने इसकी वाचना दी है, जो इस प्रकार है : सं० १६१७ वर्षे पौष वदि १ गुरौ ओसवाल ज्ञा.सा. सहसवीरभा० सिरियादेपु० सा० सकलचन्द लषाजसारतायुतेन च श्रेयसे श्रीशांतिनाथबिंबं का०प्र० श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनसिंहसूरिभिः।। वर्तमान में यह प्रतिमा अजितनाथ देरासर, अहमदाबाद में संरक्षित है। द्वितीय लेख वि०सं० १६२७ का है, जो पार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण है। आचार्य बुद्धिसागरसूरि ने इस लेख का भी मूल पाठ दिया है, जो इस प्रकार है : सं० १६२७ वर्षे वैशाख सुदि ३ शुक्रे उकेशवंशे पिपलीयागोत्रे सा० गठिया भा० बबा लघुभ्रातृ सा० चांपा पु०सा० वीरजी स्वपुण्यार्थं श्रीपार्श्वनाथबिंबं का० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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