________________
१४९
प्रस्तुत करने का बहुत बड़ा श्रेय आचार्य सिद्धसेन दिवाकर को है। आचार्य सिद्धसेन जैन साहित्य में, संस्कृत भाषा में तर्कपूर्ण काव्यमय स्तुति की रचना करने वाले प्रथम दार्शनिक भी हैं। इन्होंने दर्शन के क्षेत्र में नयी दृष्टियाँ दीं, जैन- न्याय का बीजारोपण किया तथा जैन सिद्धान्तों का तर्कपुरस्सर सूक्ष्म अध्ययन कर तात्त्विक मान्यताओं पर चिन्तन मनन का द्वार उद्घाटित किया । महावीरोपदिष्ट नयवाद और स्याद्वाद को आधार बनाकर सिद्धसेन ने जैन सिद्धान्तों की अपनी तार्किक गवेषणा प्रारम्भ की। सिद्धसेन ने सन्मतितर्क, बत्तीसबत्तीसियों (द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका), न्यायावतार, कल्याणमन्दिरस्तोत्र आदि ग्रन्थों की रचना की जिसमें सन्मतितर्क का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है।
सन्मतितर्क आचार्य सिद्धसेन की एक महत्त्वपूर्ण प्राकृत रचना है। जिस समय सन्मतितर्क की रचना हुई उस समय आगम समर्थक जैन विद्वान् प्राकृत भाषा को पोषण दे रहे थे। सम्भवतः इन विद्वानों की अभिरुचि का सम्मान करने के लिये ही सन्मतितर्क की रचना सिद्धसेन ने प्राकृत भाषा में की है। प्रमाण-विषयक सामग्री को प्रस्तुत करने वाला यह सर्वप्रथम जैन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के कलेवर में तीन काण्ड एवं १६७ गाथाएं हैं। प्रथम काण्ड में ५४ गाथाएँ हैं और इसमें नयवाद का विशद् विवेचन किया गया है। नयों का गम्भीर तलस्पर्शी चिन्तन करने वालों को यह काण्ड समुचित सामग्री प्रस्तुत करता है। दूसरे काण्ड में ४३ गाथाएँ हैं, जो पञ्चज्ञान का समुचित विवेचन प्रस्तुत करती हैं। तृतीय काण्ड में ६० गाथाएँ हैं, इसमें ज्ञेयतत्त्व की चर्चा के साथ अनेकान्त और स्याद्वाद की तर्कानुप्राणित व्याख्या की गयी है ।
तत्त्वचिन्तन के सम्यक् पथ की व्याख्या करते हुए सिद्धसेन ने आठ बातों पर जोर दिया, इसमें से चार बातें तो वे ही हैं, जिन पर स्वयं महावीर ने जोर दिया था। वे चार बाते हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इसके अतिरिक्त पर्याय, देश, संयोग और भेद पर भी उन्होंने जोर दिया। वैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में शेष चारों का भी समावेश हो जाता है। वस्तु तत्त्व के सम्यक् विश्लेषण के लिये इन दृष्टियों का होना अत्यन्त आवश्यक है ।
सिद्धसेन ने एक नयी परम्परा स्थापित की- वह परम्परा है- दर्शन और ज्ञान के अभेद की। जैनों की आगमिक परम्परा सर्वज्ञ के दर्शन और ज्ञान को भिन्न मानती थी। सिद्धसेन ने इस मान्यता पर प्रहार किया और अपने तर्कबल से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि सर्वज्ञ के दर्शन और ज्ञान में कोई भेद नहीं है । सर्वज्ञत्व के अवसर पर पहुँच कर दोनों एक रूप हो जाते हैं। उन्होंने अवधि और मन:पर्यय को भी एक सिद्ध करने का प्रयास किया है। साथ ही ज्ञान और श्रद्धा को भी एक सिद्ध किया है। सिद्धसेन ने जैनागमों में प्रसिद्ध सात नयों के स्थान पर छः नयों की स्थापना की। नैगम को स्वतन्त्र नय न मानकर सिद्धसेन ने उसे संग्रह और व्यवहार में समाविष्ट कर दिया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org