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सिद्धसेन दिवाकर के 'सन्मतितर्क' का दार्शनिक अध्ययन
(शोधप्रबन्ध-सार)
श्रीमती किरण श्रीवास्तव
भारतीय दर्शन में जैन दर्शन का एक विशिष्ट स्थान है। आचार में अहिंसा, विचार में अनेकान्तवाद, वाणी में स्याद्वाद तथा समाज में अपरिग्रह ये चार मुख्य स्तम्भ हैं जिन पर समूचा जैन दार्शनिक प्रासाद अवस्थित है। जैन दर्शन में तत्त्वमीमांसीय एवं ज्ञानमीमांसीय अवधारणाओं का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन एवं तदनुसार उस पर विराट दार्शनिक साहित्य का सृजन हुआ है। साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध जैन दर्शन का सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान आगम तथा आगमेतर साहित्य में उपलब्ध है। आगमों में निबद्ध गूढ़ दार्शनिक मान्यताओं के प्रकटीकरण में आगमेतर दार्शनिक साहित्य का विशिष्ट अवदान है। कालक्रम के आधार पर जैन दर्शन के विकास की निम्न अवस्थाएँ मिलती हैं
(१) आगमिक युग- भगवान् महावीर के निर्वाण से लेकर करीब एक हजार वर्ष का अर्थात् विक्रम की पांचवीं शताब्दी तक।
(२) अनेकान्त स्थापना युग- विक्रम की पाँचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक।
(३) दार्शनिक समीक्षा युग- विक्रम की आठवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक। (४) नवीन न्याय युग- विक्रम की सत्रहवीं से आधुनिक समयपर्यन्त।
इनमें अनेकान्त स्थापना युग वह समय है जब जैन परम्परागत दार्शनिक मान्यताओं का स्थिरीकरण हुआ तथा उनकी तार्किक गवेषणा की गयी। इस युग में अनेक ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने अपनी तार्किक क्षमता से पूर्वस्थापित दार्शनिक मान्यताओं का विश्लेषण कर अपने कतिपय विशिष्ट सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। अनेकान्त स्थापना युग के पाँच प्रमुख दार्शनिक हैं-- आचार्य सिद्धसेन, आचार्य समन्तभद्र, आचार्य मल्लवादी, आचार्य भट्टअकलंक और पात्रकेशरी। सिद्धसेन दिवाकर (४थी-५वीं शती) इस युग के प्रमुख दार्शनिक हैं। तार्किक दृष्टि से अनेकान्तवाद को *. शोधछात्रा, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, शोध-निर्देशक, डॉ० श्रीप्रकाश
पाण्डेय, वरिष्ठ प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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