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जैन धर्म और शैव सिद्धान्त दर्शन का साधना
पक्ष : एक तुलनात्मक अध्ययन
(शोध-प्रबन्ध - सार)
श्रीमती शारदा सिंह
यद्यपि संसार के बाह्य भौतिक स्वरूप में संचार साधनों, वैज्ञानिक आविष्कारों आदि की क्रमशः विकासशीलता से बहुत अधिक परिवर्तन हुआ है; किन्तु संसार के आन्तरिक पक्ष या आध्यात्मिकता में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। आनन्द प्राप्ति, अनुराग और सुधा की पुरातन शक्तियां और हृदयगत निर्दोष उल्लास एवं भय इत्यादि मानव के स्वाभाविक गुण हैं। आज के भौतिकवादी युग में भौतिकवाद की उन्नति तो हुई है; किन्तु आध्यात्मिकता की ओर मानव ने उतनी उन्नति नहीं की है जितनी अपेक्षित है।
मानव जब आध्यात्मिकता के प्रभाव में आता है तो उसके सामने लक्ष्य निर्धारण की एक जटिल प्रक्रिया होती है और यह लक्ष्य वह मात्र भावावेश में नहीं अपितु विवेक शक्ति से निर्धारण करता है। मानव जिसे अपने जीवन का सुख मानता है वह वास्तव में उसका मृत्यु की तरफ बराबर प्रयाण है । अत: जब तक मानव अपने वास्तविक लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर लेता तब तक उसका जीवन व्यर्थ और निराधार है।
मानव के सामने सबसे बड़ी समस्या जगत् में व्यापक रूप से फैले दुःखों के आत्यन्तिक निवृत्ति की है और सम्भवतः यह समस्या भारतीय दर्शन की महत्त्वपूर्ण समस्या भी है। मनुष्य के लिये यह निश्चय कर पाना कठिन है कि उसका वास्तविक सुख क्या है ? क्योंकि उसके पश्चात् ही वह जान सकता है कि जीवन का अन्तिम लक्ष्य क्या है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है? प्रायः आधुनिक विचारकों की दृष्टि
दर्शन का अर्थ भाग्य पर भरोसा, तपस्या आदि से पार्थिव शरीर को त्याग देना इत्यादि है; किन्तु सच्चे अर्थ में आध्यात्मिकता से प्रेरित व्यक्ति भारतीय विचारधारा के अन्दर से ऐसे सामग्री को ढूढ़ निकालता है जिसका कोई सममूल्य नहीं है ।
शोधछात्रा, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, शोधनिर्देशक - डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, वरिष्ठ प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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