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उद्धरणों और प्रसंगों से सिद्ध कर देगा, वह धूर्तों का राजा मान लिया जायेगा और शेष धूर्त - मण्डली उसकी दासता स्वीकारने और उसकी आज्ञा मानने को विवश होंगे।
अब ऐसे वातावरण और ऐसी विकट परिस्थिति में तो कथा को लम्बा नहीं खींचा जा सकता था। इसलिए विलक्षण कथाकोविद आचार्य हरिभद्रसूरि ने यहाँ लघुकथनशैली अपनायी है। उसने चार धूर्तों के साथ एक धूर्त नेत्री को ला जोड़ा है। वह भी बहुत साभिप्राय है । हरिभद्रसूरि यह दिखाना चाहते हैं कि उस काल में भी जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था, जहाँ स्त्रियों का प्रवेश नहीं था। उच्च से उच्च और गर्हित से गर्हित गतिविधियों में भी उनकी उचित भागीदारी थी । केवल यही नहीं, ऐसे क्षेत्रों में उनका दबदबा भी रहता था। तब का रचनाकार इस दृष्टि से सोच सका और अपने रचनात्मक प्रतिफलन का नमूना सामने रख सका, यह देखकर प्रीतिकर आश्चर्य होता है। इस धूर्तगोष्ठी में भी अन्तत: धूर्त नेत्री खण्डपाना ही बाजी मारती है और फिर उदार भाव से, पराजित न होने पर भी, युक्तिपूर्वक उद्योग करके भूख से कुलबुलाती हुई, ठण्ड से काँपती- सिहरती धूर्त्तमण्डली को भरपेट स्वादिष्ट भोजन कराती है। इस प्रकार, स्त्री अपने अन्नपूर्णा-रूप को सिद्ध और प्रतिष्ठित करती है। चार पुरुषों पर भारी पड़ती एक स्त्री को इस रूप में दिखाकर हरिभद्रसूरि ने एक विलुप्त ऐतिहासिक कड़ी को प्रत्यक्ष किया है। यहाँ यदि हम याद रखें कि चार धूर्तों के पाँच-पाँच अनुचरों को भी वह अपने प्रभाव-वृत्त में ले आती है तो हमें हरिभद्रसूरि के सामाजिक चिन्तन को सराहना ही होगा।
कृति में कौतूहल और तनाव आद्यन्त बना रहता है। 'मैदान' में पाँच-पाँच दिग्गज महारथी डटे हैं। उनको घेरे उनके पाँच-पाँच सौ उत्सुक और अधीर दर्शक श्रोता हैं। सबके मन में अपार कौतूहल और तनाव है कि कौन जीतता है, उन्हें कब, कैसे भोजन मिलता है ? समझिए साँड़ों के दंगल का दृश्य है। पर फर्क यह है कि साँड़ों के दंगल के दृश्य में दर्शक कोलाहल करते, हल्ला मचाते, उछलते-कूदते नजर आते हैं, जबकि यहाँ सभी अनुचर दम साधे परिणाम की आशा में उदग्र हैं। तनाव उनके चेहरे पर साफ देखा जा सकता है। इस रूप में कृति सघन चाक्षुष प्रतीति देने में भी सर्वभावेन समर्थ है।
यहाँ लेखक ने पाठकों की कल्पना को अबाध विचरण करने का अवसर भी दिया है। हम उस उद्यान और सभा मण्डप की कल्पना कर सकते हैं, जहाँ घनघोर वर्षा में इतने-इतने लोग समाये हुए हैं। लगता है, तब के सामाजिक जीवन में विशाल उद्यानों की बहुत उपयोगिता और आवश्यकता रही होगी । विशालकाय उद्यानों में विशालकाय मण्डप, सभामंच, विचारमण्डप या क्रीड़ामंच रहते होंगे। ये आज के 'इनडोर स्टेडियम' के तर्ज पर होते रहे होंगे। लेखक ने कहीं इसका वर्णन तो नहीं किया है, पर यह सब पाठक की कल्पना में आ जाता है। क्या कमाल की कला है। कि कठपुतलियों का विराट खेल है, पर कहीं कठपुतली नचाते तार नजर नहीं आते। इस रूप में हरिभद्रसूरि ने अद्भुत निपुणता का परिचय दिया है।
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