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________________ ७६ भावों के प्रवेश पर विवेक का अंकुश न हो तो वह कितनी ही प्रकार की समस्याओं को जन्म दे सकता है। गृहस्थ बनने के लिए श्रावक बनना चाहिए और परस्पर विश्वासी बनना कि दूसरों की इच्छा ही अपनी इच्छा बने। संत बनना हो तो ऐसा बनना जिसे क्रोध ही न आये। श्रम की प्रतिष्ठापना तथा आराधना जहाँ भी होगी वहाँ किसी प्रकार की कमी कभी नहीं हो सकती। प्रार्थना, स्तुति, स्तवन आदि माध्यमों से व्यक्ति अपनी श्रद्धा को परिपुष्ट कर सकता है। प्रार्थना सम्यक् रूप से हो क्योंकि प्रार्थना अपने सबसे विश्वस्त, सर्वसमर्थ तथा सबसे आत्मीय सत्ता से जुड़ने की एक सरल किन्तु अत्यंत प्रभावशाली, आध्यात्मिक प्रक्रिया है जो क्रिया से सामान्य होते हुए भी प्रतिक्रिया की दृष्टि से असामान्य है। मनुष्य जीवन चंदन काष्ठ की तरह बहुत मूल्यवान है उसे कोयले की तरह कौड़ी के मोल न गंवाओ। जीवन का एक-एक क्षण बहुमूल्य है उसे वासना और तृष्णाओं के बदले क्षणिक सुख की प्राप्ति से मत गंवाओ। अब जितना भी समय बचा है उसका सदुपयोग कर लो। बहुत गंवाकर भी कोई मनुष्य अंत में भी संभल जाता है तो वह बुद्धिमान ही माना जाता है। आत्मबल और आत्मज्ञान निर्बलता से नहीं प्राप्त किया जा सकता है और न प्रमाद या निरुद्देश्य प्रयासों से ही प्राप्त किया जा सकता है। वहीं ज्ञानी साधक इसके विपरीत बल, अप्रमाद एवं सोद्देश्य यत्नों द्वारा आत्म कल्याण कर सकता है। __ समय को बर्बाद मत करो। हर क्षण शुभ है अत: अवसर की प्रतीक्षा में मत रहो। अवसर हमेशा हर दिन हर क्षण होता है। बुद्धिमानी इसी में है कि अवसर का अधिकाधिक उपयोग किया जाय। अवसर की तलाश में अवसर ही चला जाता है। भूतकाल की चर्चा न करें जो गया वह लौटने वाला नहीं। काम चाहे छोटा ही क्यों न हो, यदि सही तरीके से कर दिखाया जाय तो उससे अच्छा परिणाम निकल आता है। यही उन्नति की सीढ़ी है। यज्ञ का अर्थ जीवों की हिंसा नहीं है। वास्तव में यज्ञ का अर्थ है उदारशील-दानवृत्ति, सत्प्रवृत्तियों का अभिनन्दन एवं सामुहिकता को समर्थन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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