SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७५ से आत्म विस्मृति छाई रहती है। भौतिक सुखाकांक्षा में भटकती जीवात्मा अशांति और असंतोष के आग में जलती रहती है। रोने-कलपने में हारी थकी जिंदगी कट जाती है। ऐसा इसलिए होता है मनुष्य को अपनी सत्ता का बोध नहीं हो पाता, न ही कोशिश होती है और जीवन लक्ष्य का निर्धारण भी नहीं हो पाता है। आत्म ज्ञान की चरम उपलब्धि के लिए तत्वदर्शन को समझना जितना आवश्यक है उतना ही संयम साधना का मार्गावलम्बन भी अनिवार्य है। चित्त (मन) के उदय और अस्त से संसार का उदय और अस्त होता है। अतः वासनादिक मनोविकारों के निरोध से मन का निरोध जरूरी है। मन को वश में करने के लिए ज्ञान मार्ग का अवलम्बन लेना चाहिए। क्रोध को जीतने का प्रयास श्रेष्ठतम प्रयास है। श्री जिनधर्म का मर्म समझते कर्म हलका होता है, दुनियादी भ्रम टल जाता है और इससे शिवशर्म सहज व सत्वर प्राप्त होता है यह स्वाभाविक है। जहाँ त्याग है वहाँ है शिवसुंदरी का वास है। जहाँ है कर्म और मोह की आग वहाँ है भागमभाग। हे मानव! कुंभकर्ण की निद्रा से जाग। अनगारी बनने से विकार हटेगा और जिनधर्म स्वीकारने से श्री जिन निर्दिष्टत आचरण से दुःख मिटेगा। जिन ध्यान में लीन बनो, जिससे आत्म बल बढ़ेगा। धर्म का पोषण और कर्म का शोषण करो। यदि त्याग से भागे तो समझो कि नहीं जागे। त्याग धर्म में लगे तो यश का डंका बजेगा। वैराग्य भाव हृदय में बसाओ और सूक्ष्ममति से जिन तत्वों को बसाओ। आपकी आकृति तो मानव की है किन्तु आसुरी प्रवृत्तियों से दानव मत बनो। त्याग के लिए तो राग है पर राग का त्याग कब करेंगे? जिनधर्म की दीक्षा सच्ची शिक्षा है और आत्मा की परीक्षा है। आत्मा की क्षुधा पिपासा आंतरिक उत्कृष्टता एवं उदार सेवा साधना से ही तृप्त होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy